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णित श्रागमानुसारे उपादेय - हेयादिमां प्रवृत्ति - निवृति करनार आत्माने अलौकिक लोकलोकोत्तर सिध्धियो तत्काल सहजतया उपलब्ध थाय छे. एटले - " व्यवहारमां जेम अमुक माणसनी सलाहथी अमुक माणस कोई जातनुं कार्य अगर व्यापार करे एवं मार्गमां गमन करे अने तेमां ज्यारे पोते फतेह मेळवे त्यारे ते माणस एमज समजे छे के अमुकनी सलाहथी - वचनथी हूं चाल्यो माटे ते माणसे ज मने सुखी कर्यो. " अत्र माणसना वचनथी जे सिद्धि थइ ते माणसे ज सिद्धियो अर्पी एवं उच्चारता, मानता अने व्यवहार करता जनताने आपणे सामान्य दृष्टिथी जोइये छीये, तो पछी अहीं भगवानना वचनाधारे प्रवृत्ति करनार आत्मा इष्ट सिद्धि मेळवे ते भगवाने ज अर्पण करी ए व्यवहार शामाटे अनुचित मानवो ? अर्थात् भगवान ज अर्पण करे छे ए उक्तिमां कांई अनौचित्यपणुं समजातुं नथी. अतः भगवानने चिंतामणिनी उपमा बराबर चरितार्थ थइ शके छे.
" अनौपम्य भगवान "
वधुमां भगवान तो चिंतामणिनी अपेक्षाए अधिक फल अर्पणकर्ता होवाथी भगवाननी आगल चिंतामणी पण सामान्य पत्थरवत् समजवो, कारण के चिंतामणि तो मात्र इहलोक संबंधी ज तुच्छ पदार्थो अर्पण करे छे पण जन्मांतरना सुखो आपवाने समर्थ नथी थतो; ज्यारे भगवान तो लोकलोकोत्तरना दिव्य सुखो अर्पण करी अखंड श्रात्मानंदने