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(१३४) मान-प्रतिष्ठानो लोभ छोडी परिश्रम के शरीरखेदनो विचार कर्या विना मात्र श्रोतार्नु कल्याण क्या प्रकारे थाय तेवा पवित्र विचारोपूर्वक ज उपदेश आपवो. " उपदेशनुं खरं फल"
श्रा रीते उत्तम उपदेश आपवाथी वक्ता प्राचार्य स्वर्नु (पोतानु) कल्याण साधवापूर्वक श्रोताने उद्दाम धर्मज पमाडे छे. आचार्यश्री कहे छे के-'जनयति स एनमतुलं श्रोतृषु निर्वाणफलदमलम्' आ रीते धर्मोपदेश प्रापवाथी उपदेशक सारी रीते श्रोताओना चित्तमां असाधारण एवो धर्मप्रेम उत्पन्न करे छे, जेथी श्रोताने एवो दृढ धर्मप्रेम जागृत थाय छे के जे परिणामे अवश्यमेव निर्वाण-मोक्षरूप फल अर्पण करवा समर्थ बने छे. निदान के-श्रोताछेवटे मोक्ष पामी स्वात्माने कृतकृत्य करवा समर्थ थाय तेवो उत्तरोत्तर शुद्धतर धर्म पामे छ. टुंकमां-आचार्यना उपदेशमां एवो तो अद्भुत चमत्कार तथा आकर्षण होय के श्रोताने कंटाळो के अभाव कदापि उत्पन्न न थाय, किंतु मोरलीना नादथी आकर्षायेला नागनी माफक खेंचाइ खेंचाइने उपस्थित थइ अधिकाधिक श्रवण करवामां दत्तचित्त बने ने पछी परिणामे तथाप्रकारे उपदेशना बलथी उत्तम पंथानुयायी थाय. आथी श्रोता भने वक्ता उभयतुं परिणामे कल्याण ज थाय छे. वधुमां उमास्वाती महाराज कहे छे के-" वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति" आवो उपदेश आपनार प्राचार्य छेवटे कांइ नहीं तो पोताना अनंतपापकर्मोनी निर्जरा-क्षय निःसंदेहपणे करे छे.
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