Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Keshavlal Jain

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Page 421
________________ ( ४१० ) - ና छे. गुन्हानी शिक्षा सामे रोष करवो ए तो बालचेष्टा गणाय. यदि विचार करता एवं जणाय के स्वप्ने पण अपराध, नुकशान के अन्यथा वर्त्तन कर्तुं नथी छतां आ माणस क्रोध करे छे तो ते अज्ञानी छे, अज्ञानथी प्रलाप करे छे, अज्ञानी सामे प्रलाप करवाथी हुं पण अज्ञानी ज ठरुं, आथी पण मारे क्रोध करवो अघटित ज कहेवाय. एज परमार्थनो अनुवाद पूर्वाचार्यों एक सुभाषितथी उपदेशे छे. आकुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्थगवेषणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन " ॥ १ ॥ आटलो विचार करवाथी पण जो क्रोध निष्फल थाय नहीं तो " क्रोधदोषचिन्तनाश्च " क्रोधनुं फल विचाखुं. क्रोध करवाथी प्रथम तो पोतानुं शरीर तपी जाय, कंठ सुकाय, बेचेनी थाय, भान भूली जवाय, अनाज पर अरुचि थाय, बुद्धि भ्रष्ट थाय, स्वकर्तव्य अने विवेक विसरी जवाय, प्रेमनो नाश थाय, इज्जत चाली जाय, लोकोमां क्रोधीपणानी ख्याति थाय अने छेवटे पुण्यफ " 6 नो पण नाश थाय. आ हेतुथी पण क्रोध करवो अघटित ज छे. आम विचार करवा छतां क्रोध न रोकाय तो बालस्वभावचिन्तनाच्च " बालस्वभावनो विचार करवो. अज्ञानीनी ज ए टेव होय छे के परोक्षमां तथा प्रत्यक्षमां निष्कारण कोप करवो, तेमज ताडन, मरण अने धर्मभ्रष्ट लोकोने करवा; परंतु विवेकी विचारखं जोइए के ते अज्ञानी .

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