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(२८९) अने तेश्रो पासेथी ते पदार्थों प्राप्तव्य होवाथी तेश्रोनी पूजा तेत्रोने योग्य अवश्य करवी जोइए ए पूजकोनो धर्म छे. योग्यतुं योग्य सन्मान करवू ते आपणी योग्यता वधवानुं बीज छे, कारण के योग्यने जेटलुं प्रापीये तेनाथी सहस्रगणुं पार्छ आपणने मळे छे अर्थात् जे पदार्थनी आपणने भविष्यमां चाहना होय तेना माटे ते पदार्थवान्नी उचित सेवा-सन्मानपूजा विगेरे करवां जोइए. पाथी ज आचार्य हरिभद्रसूरीश्वरजी पूजानो उपदेश करता पूजकोने कहे छे के- 'देवगुणपरिज्ञानात् ' एटले देवना जे जे अनुकरणीय अने प्राप्तव्य गुणो छेतेनुं ज्ञान करवू, तेनो अभ्यास करवो अने पूजा करती वखते तेनी ज भावना करवी, एटलुंज नहीं पण 'तभावानुगतं' देवना गुणस्मरण-ध्यानमां प्रात्माने लीन करी शास्त्रोक्त विधिथी उत्तम प्रकारे वीतरागदेवनी पूजा करवी, तेमज देव परत्वे अने पूजामां एकान्त अादर आचरण प्रीति सहित पूजा करवी एटले या पूजा परमार्थ पूजा कहेवाय. निदान ए केईश्वरपूजन करती वखते ध्याता, ध्येय अने ध्यान आ त्रिपुटीनी एवी तो ऐक्यता थवी जोइए के जेथी शास्त्रोक्त अमृतक्रियानुं लक्षण आ पूजामां समन्वित थाय अने 'भ्रमरी-कीटक' न्याय लागु थइ शके. अरे ! उमास्वाती वाचकजी कहे छे ते प्रमाणे पूजा करवाथी उत्तरोत्तर अवश्य लाभ थाय. " अभ्यर्चनादहतां मनःप्रसादस्ततः समाधिश्च । तस्मादपि