Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Keshavlal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 411
________________ (४००) स्वीकार्यरूपे महर्षियोए दर्शात्री छे, अर्थात् आगल जेनुं विस्तृत स्वरूप जणावी गया एज प्रतिष्ठा आचार्योए स्वीकारी छे, कही छे अने हितार्थी भव्योने आदेयरूप छे. तेमज लौकिक लोकोत्तर भावोमां आ प्रतिष्ठा मुख्य मानी छे, मात्र आचार्यो भिन्नता एटली ज कहे छे के-निजभावनो जे मूर्तिमां आरोप थाय ते समये आ प्रतिष्ठा करी एवो भाव जनसमूहना हृदयमा विकसाववा मंत्रोच्चार करवो तेमां विविध भेदो छे, एटले भिन्न भिन्न मंत्रद्वारा विविध क्रियाओ करी ते भावनो आरोप थाय छे. आ कारणथी प्रतिष्ठा शास्त्रसिद्ध छ एम कर्ताना हृदयमां अवश्य श्रद्धा प्रकटे अने तेमां प्रवृत्ति करे. ते प्रतिष्ठाद्वारा स्वकार्यसिद्धि जरूर करे छे. बस आ समाधानथी उपरोक्त शंका निरस्त थाय छे. मंत्रादि क्रियामां भिन्नता छ एम उपर कही गया हवे अहीं मंत्रादि क्रियामां क्या प्रकारनी भिन्नता छे ते स्पष्ट करे छे. आवाहनादि सर्वं, वायुकुमारादिगोचरं चात्र ॥ सम्मार्जनादिसिद्धयै, कर्त्तव्यं मंत्रपूर्वं तु ॥ ८–११॥ मूलार्थ-प्रतिष्ठा कार्य पूर्वे अन्य देवोने आमंत्रण,

Loading...

Page Navigation
1 ... 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430