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यक प्रतिज्ञानी दृढता अने तत्संबंधी विशेष प्रशयनी शुध्धि दर्शावी ते जाशयशुधिपूर्वक धर्म संबंधी प्रतिज्ञामां 'प्रवृत्तिः ' गमन कर. परमार्थ ए के अहीं प्रवृत्ति मात्र शून्यचित्तवाली क्रियारूप न लेवी, किन्तु अभिप्रायपूर्वक बाह्य क्रियारूप था - त्मानी विशिष्टि चेष्टा तद्रूप प्रवृत्ति अत्र जाणावी. पूर्वे कह्या प्रमाणे " हुं आजथी हम्मेशा पूजन करीश " आ प्रमाणे प्रतिज्ञा गुरुसमक्ष स्वीकार्या बाद ज्यांसुधी या प्रतिज्ञानो समय पूरो न थाय त्यांसुधी ते प्रमाणे वर्तन कर्या ज करखुं, परंतु अंतरमां मात्र प्रतिज्ञा लेवानी इच्छा उद्भवी ते इच्छारूपे ज बन्या रहे तेम नहीं अथवा तो लीधा पछी तेना पालन प्रति बेदरकारी या तो एक वेठरूपे पूरी थाय तेवी नहीं परंतु “शुभसारोपायसंगतात्यंतम्” 'शुभ-सुंदर, सार - उत्कृष्ट एवा उपायोवडे अत्यंत युक्त ' स्वीकृत धर्म संबंधी प्रतिज्ञाना पालन माटे हम्मेशा जेम बने तेम शोभन अने उत्कृष्ट एवा उपायो बुद्धिवलवडे योजी योजीने आदरपूर्वक अत्यंत क्रियानुं आचरण कर, एटले जे जे प्रतिज्ञाय स्वीकारी होय तेना पालननी वृद्धि माटे क्या क्या साधनोनी अपेक्षा रहे
१ तेमां केवा विवेकनी जरूर रहे छे ? यावा यावा विचारो करी, धर्मज्ञ पुरुषोने पूछी पूछी तथाप्रकारे सुंदर आचरण करवुं. ' गतानुगतिक ' न्याये अथवा पहेलाथी श्रोघबुद्धिए जेम क्रिया करीए तथाप्रकारे कर्या करवी, अगर तो कोइ सुधारवानुं कहे तो पण न सुधारता पोतानुं ज धार्यु कर