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(३९२) र्गत मानी पण नथी. आथी ज शास्त्रकर्ता कहे छे के-निजभावनी स्थापना करवी ते ज पारमार्थिक प्रतिष्ठा जाणवी अने मोक्षस्थ आत्मानी प्रतिष्ठानो निषेध कर्यो छे तेमज संसारस्थ अवीतराग, असर्वज्ञ देवोमां अहंत्व-ममत्वना कारणथी 'आ माझं स्थान ' ए भावना अवश्य होय छे अने तेओनो वास पण मूर्तिमा सर्वदा थइ शके छे, पण ते संसारी देव होवाथी तेनी स्थापना मात्रथी काइ परमात्मपूजननुं फल अथवा ध्यान प्राप्त थाय नहीं, एवं आ स्थापना परमात्मानी स्थापना एवो पण निर्देश थइ शके नहीं. वळी अहीं परमात्मानी स्थापना अभिप्रेत छे माटे आ संसारी देवनी स्थापना पण अमुख्य स्थापना मानी छे. हवे परमात्मदेव विषयक निजभाव स्थापनाकामां अवश्य छे तथा ते स्थापनाकर्ता अहीं ज विद्यमान छे अने मूर्ति पण अहीं ज दृश्यमान छे, एटले परमात्म संबंधी पवित्रभाव प्रतिष्ठाकर्ता स्वहृदयमां आरोपी तेज भाव बहिर्वर्ती पाषाणमूर्तिमां पण उपचारथी मंत्रादि संस्कारोद्वारा निश्चयेन करी शके, अतएव ए ज प्रतिष्ठा अहीं मुख्य प्रतिष्ठा आचार्यदेवे कही. ___ एज वातनी अधिक पुष्टि माटे आचार्यश्री फरीने जणावे छे. इज्यादेन च तस्या,
उपकारः कश्चिदत्र मुख्य इति ॥