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( २३०) " दृष्टिरागस्तु पापीयान्दुरुच्छेदः सतामपि " अतएव श्रा बन्ने दुर्गुणो अलग अलग समजवा, पण बबेनी ऐक्यता करवानी उतावळ करवी नहीं. आ दृष्टिमोह पोताना उपजवा पछी आभिनिवेशिक नामे मिथ्यात्वभावने अवश्य उपजावे छ अर्थात् आभिनिवेशिक मिथ्यात्व विना केवल दृष्टिमोह रही शकतो नथी, माटे दृष्टिमोह आभिनिवेशिक मिथ्यात्वर्नु खास उपादान कारण मान्युं छे. अतएव मूलकारे अहीं मूलमां 'अधमो दोषः' ए पदथी आ दोष अधम-निकृष्ट छे एम कड्यु, आटलं ज नहीं पण 'खलु' ए पद खास वधारे भार मूकवाने आप्यु छ अर्थात्-श्रा दोष खरेखर अधम ज छे, आत्मानो घातक नितान्त श्रा दोष छे. हवे प्रलोकना पूर्वार्धथी पा दोषनुं स्वरूप समजावे छे. 'गुणतस्तुल्ये तत्त्वे संज्ञाभेदागमान्यथादृष्टिः ' गुणनो अर्थ उपकारफल तेने आश्रीने तुल्य एटले समान अने तत्त्वनो अर्थ पदार्थ. 'तत्त्वे' अहीं द्विवचन होगथी बे पदार्थों लेवा. परमार्थ ए के-चे पदार्थों एवा होय के जेनुं फल बराबर एक सर ज होय, छतां मात्र बन्नेना नामो भिन्न भिन्न होय तेथी अने पोतपोताना मानेल आगमोमां भिन्न प्रकार बताव्यो होय तेथी आ बने कारणोथी ते बन्ने पदार्थोंने वस्तुतः एक छतां भिन्नरूपे मानवा. जेमके-'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ' ए वाक्यथी भूतहिसामां पाप मान्युं तो पण अमुक जीवनो कोइ माणस मांसना लोभथी अथवा अन्य कारणथी वध करे एटले आवध करवामां