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परहितनिरतस्य
सदा गंभीरोदार भावस्य ॥ ५-१० ॥
मूलार्थ - - परोपकारमां ग्रासक्त ने नित्य गांभीर्यता तथा दार्य भाववडे करीने युक्त एवा आत्माने दश प्रकारनी संज्ञाने यथाशक्ति रोकवानी शक्ति प्राप्त थवाथी निश्चयेन अखंड परिपूर्ण सदनुष्ठान प्राप्त थाय छे.
"स्पष्टीकरण"
विरतिरूप सदनुष्ठाननी प्राप्ति बाह्य विषयसुख, पुद्गल प्रेम परत्वेनो मोह, आसक्ति लोभ अल्प न थाय अथवा नाश न पामे त्यां सुधी थाय नहीं ए बात अमे पहेलां पण जणावी गया बीए. फरी ग्रंथकार ते ज वात शास्त्रीय शब्दोथी अहीं वधारे स्पष्ट करे छे. आ ' सदनुष्ठान ' लाभ दश प्रकारनी संज्ञानो यथाशक्ति निरोध करवाथी अगर नाश करवानो जाज्वल्यमान उत्साह हृदयमां आववाथी थाय छे. परमार्थ ए के प्रत्येक आत्माने अनादिकालथी प्रत्येक गतिमां दश प्रका रनी संज्ञा खास हृदयंगत आत्मस्वरूपे विद्यमान होय छे, जेथी आत्मा अनेक तरेहना कर्मों बांधी ते संज्ञाकृत विकारोने पोतानो धर्म समजी अनंत संसारमां पर्यटन करे छे, एवं आत्मस्वरूपने ओळखवा जेटलं सद्ज्ञान पण पामी शकतो नथी तो पछी विरतिरूप सुंदर क्रिया तो क्यांथी पामी शके ? श्रा ज हेतुथी ग्रंथकर्ता महर्षिपूज्य प्रथम ते दश संज्ञाश्रोनो निरोध