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छे तेम शास्त्रज्ञान पाम्या पछी अने ते प्रमाणे अनुशीलन करवाथी भव्य आत्मा अनादिना दुर्भेद्य कर्मोनो क्षणवारमां अवश्य नाश करी नांखे छे. अतएव शास्त्रमां कह्युं छे के" अन्नाणि जं कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सास मित्तेणं " ॥ १ ॥ “ अज्ञानी जे कर्मोने घणा क्रोडो वर्षे खपावे ते ज कर्मोने गुप्तेंद्रिय अने गुप्तयोगी ज्ञानी एक श्वासोश्वास कालमां खपावे छे. " श्री कृष्ण गीतामां अर्जुन प्रति कहे छे के – “ ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन" तथा कर्मों अहीं इंधनरूपे मान्या छे एटले वचनरूप अग्निमां कमरूपी इंधननो प्रक्षेप करवाथी तेनो ते नाश करे छे, माटे अहीं " भावविधौ " मुख्य देवता विषयक भावविधानमां आ बाह्य प्रतिष्ठित मूर्त्ति खास पुष्टिकर्ता होवाथी अर्थात् भावशुद्धिकारक होवाथी ' सफलैषापि' आ मूर्त्तिनी प्रतिष्ठा पण नितान्त सफल ज छे. परमार्थ ए के मुख्य देव संबंधी स्वात्मामां प्रशस्त भावनी प्राप्ति थया पछी तेमां स्वात्मा लीन बने छे, अने पछी शास्त्रानुसारे सर्व चेष्टा स्वीकारी जीवात्मा शुद्ध कांचन तुल्य परमात्मभाव प्राप्त करे छे. एटले अत्र स्थले भावरूप पारो, जीवात्मा रूप ताम्र धातु, वचनरूप अग्नि आ सर्वनो मेलाप थया पछी भावरूप पारो वचनरूप अग्निमां जीवात्माने तपावी कर्मोनो दाह करे छे, कर्मो भस्मीभूत थाय छे अने आत्मा निर्मल बने छे, परंतु प्रथमना सर्व संयोग प्राप्त थाय तदपि