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( १३३) " उपसंहार" ___स्पष्टीकरणः-उपदेशविधिना प्रकारो दर्शाव्या. अत्र तो तेनुं फल प्रकाश्युं छे. प्रथम तो उपदेश प्रापवानो अधिकार आगल दर्शाव्या प्रमाणे "धम्मो जिण पण्णत्तो पकप्पजयिणा कहेयव्वो" जिनकथित धर्म केवळ प्रकल्पयतिए (गीतार्थमुनिए ) ज प्ररूपवो, अर्थात्-त्यागी, मोक्षमार्गस्थित अने गुरुकुलवासमां रही योगादि क्रिया अाराधी जघन्यथी पण आचारांगादि पांच सूत्रोमां निपुण एवा गीतार्थमुनिए ज धर्मव्याख्या करवी; सिवाय अन्यने तो बोलवानो पण अधिकार नथी तो पछी धर्मदेशनानी वात ज क्यां रही ? आ मुनि पण 'अनघमतिः' पापबुद्धि रहित एटले केवल पवित्राशयवान् होय ते ज. हेतु ए के-स्वार्थी के आग्रही कदापि शुद्ध उपदेश पापी शकता नथी. ते पण बाल, मध्यम आदि वर्गनी प्रथम चेष्टा, क्रिया, अभिरुचि, बुद्धि, विचार आदि साधनद्वाराए योग्यतानो बराबर ख्याल करी, तपास कर्या पछी ते लोकोने धर्मनो बोध थाय, श्रद्धा अने अभिरुचीमां वधारो थाय, उत्तरोतर उत्तम उत्तम अवस्थाओ प्राप्त करे तथाप्रकारे पूर्वोक्त उपदेशके तेश्रोना अधिकार प्रमाणे उपदेश आपवो. उपदेश आपती वखते एटलुं तो खास ध्यान राखg के उपदेशमां भगवंत तथा पूर्वाचार्योना ब्हाने स्वमतिकल्पना के आग्रहनुं मिश्रण करी श्रोताओने उपदेश न अपाय; कारण के एथी उपदेशक अनंतसंसारनी वृद्धि करी श्रोताने पण कल्याणना बदलामां अकल्याण प्रति घसडी जाय छे. एवं प्राशाभाव तथा