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(१७४ ) चालता यका कदाचित् मिथ्यात्वभावना उदयथी घणा धर्मोमां क्यो धर्म सत्य हशे ? जैनधर्मना प्रवर्तको सर्वज्ञ हता के नहीं ? धर्मनुं फल परजन्ममा मलशे के नहीं ? निगोद विगेरे भावो कह्या छे ते शुं सत्य छ ? आवा पावा मनना विभ्रमो-संशयो पेदा थाय एटले आत्मा तेनाथी व्याकुल थइ धर्ममा अस्थिर परिणामी थइ जाय, सम्यक्तया धर्माराधन करी शके नहीं एटले मिथ्यात्वभावना कारणथी आत्मा धर्मपंथने छोडी अधर्मना मार्गे चडी जाय छे. माटे आ विघ्न अनर्थकारी जाणी तेनो सर्वथा विजय तेज करी शके के जे सम्यक् धर्ममार्गनी पोतानी अपूर्व शुद्ध-बुद्धिथी परीक्षा करी चलितपरिणामी न थाय या तो अन्थ गुर्वादिको जे धर्ममार्ग दर्शावे तेना पर बराबर श्रद्धा-विश्वास राखे अने मनना खोटा असद्भूत संशयोने आधीन न थाय. पात्रणे प्रकारना विघ्नो श्रात्माने धर्मथी भ्रष्ट करे छे, तो प्रात्मानी निश्चल परिणति स्थिर करी, मनना विभ्रमोनो नाश करी जे धर्माराधन करवानुं अद्भूत बल धारण करे, कोइ पण विघ्नोथी पराभूत न ज थाय ते ज आत्मा धर्ममार्गना इष्ट स्थान प्रति पहोंची शके छे. प्रावा प्राशयतुं नाम अत्र 'विघ्नजय' नामे त्रीजो प्राशय कह्यो छे. "परामर्श"
अत्रे पात्रण प्रकारना विघ्नो पैकी. कंटक तुल्य शीत, उष्ण आदि परीसहरूप हीनविघ्नो मात्र धर्माराधनामां आत्माने कायर प्रमादी बनावे के, अने ज्वर तुल्य रोगादिरूप