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मूलार्थ - साधुए श्राहारादिनी विस्तारथी शुद्धि करवी ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आश्रित विविध अभिग्रहो धारण करवा, तथा नित्य छ विगयोमांथी अमुक विगयनो त्याग करवो. एवं तपना पारणे एक सिक्थ, वे सिक्थथी पार कर.
स्पष्टीकरण - जैन साधुओ हनन, पचन, क्रयण ए ऋण कोटीना त्यागी होय छे, अर्थात् साधुओ कोइ जीवने मारे, मरावे अने मारताने सारो समजे नहीं, अग्नि आदिनो श्राहारादि माटे आरंभ करे, करावे तथा करताने सुंदर समजे नहीं एवं विक्रथी को वस्तु ले, लेवरावे नहीं - ग्रावो कठोर आचार साधुओनो होवाथी साधुओए शरीरना निर्वाह तथा धर्मसाधनार्थे ग्रहस्थे स्वकुटुंब अर्थे तैयार करेल भोजन अने पाणी आदिमांथी माधुकरी वृत्तिये उचित समये अल्प अल्प आहार ग्रहण करवो. एटले जे आहारमां शास्त्रकथित आहार संबंधी ४२ दोषो न लागे एवोज आहार मुनियो माटे लेवा योग्य को छे; अने ते सिवायनो आहार अकल्प्य कह्यो छे. अहीं हारना १६ उद्गम दोषो, १६ उत्पादना दोषो, १० एसा अने ग्रासणा दोषो मली ४२ दोषो पिंडनिर्युक्तिमां कहाा छे. आनुं विस्तारथी स्वरूप बालश्रोता सामे उपदेशके करवुं, तथा द्रव्याद्यभिग्रहाश्चैव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आश्रयी ४ प्रकारना अभिग्रहनुं स्वरूप कथन करवुं. अर्थात् उत्तम मुनियो रोज नाना प्रकारना अभिग्रहो धारण करे