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शके छे. अहीं मंदिर बांधवासां यतना पाळवानुं स्त्ररूप पंचाशक टीकामांप्रमाणे कहुं छे. परिणत - एटले बराबर छाणीने. कोइक आचार्य अहीं परिणतनो अर्थ चित्त जल लेबुं तेप करे छे तथा जेमां किडी, कुंथु आदि त्रस जीवो न होय तेवा बराबर स्वदृष्टिए तपासेल काष्ठ, इंट, चूनो, पत्थर विगेरे पदार्थो लेवा तेमज अन्य कृषि आदि आरंभी बाजु करी भाविक गृहस्थे स्वयं पोतानी देखरेखथी स्वहस्तथी कार्य करं; परंतु कारीगरोने भरोसे करावनुं नहीं. या प्रमाणे यतनाथी मंदिर बंधावj. आथी या कार्य भावहिंसा वगरनुं कही शकाय . " सा इह परिणयजलदलविशुद्धरूवा उ होइ णायव्वा । अण्णारं भणिवित्तीए अप्पणाहिटुणं चेवं " ॥ १ ॥ अतएव शास्त्रकारो या यतनाने जो के प्रवृत्तिरूप छे तो पण अन्य दुष्ट प्रवृत्ति बंध करनार होवाथी निवृत्तिरूप कहे छे, कारण के मा यतनाद्वाराए जिनभवनरूप अल्प दोषमय कार्यनो आदर अने बहुदोषयुक्त अन्य आरंभोनो त्याग थाय छे. आ रीते विचारवाथी ने पंचाशकमां यतनानुं जे स्वरूप कधुं छे ते प्रमाणे वर्तवाथी भावहिंसारूप दोष मंदिर बांधवामां न आवे ए वास्तविक सत्य छे.
सुधी तो भावहिंसा न लागे ए विचार्य, पण द्रव्यहिंसा अथवा स्वरूपहिंसा तो मंदिर बांधवामां जरूर लागे, ए प्रश्नना उत्तरमां शास्त्रकार जगावे छे के जो के द्रव्यहिंसा थाय तो पण अहीं जे यतना दर्शावी तथाप्रकारे वर्तवाथी ते