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( २०२) उदारताना कार्यों जाणवा. परमार्थ ए के-मानयोग्य जनो अने दीन, दुःखी, अपंग, अंध, कृपण जनो साथे उचित सद्भाव राखतो, हृदयनी विशाल भावना धारण करवी, कंजुसाइने मकी सर्वे धर्मकार्योमा अति उचित बुद्धि, गंभीर अंतःकरण धार प्रानुं नाम औदार्य' नामे धर्मनुं प्रथम लाख शास्त्रकार कहे छे. क्रम प्राप्त 'दाक्षिण्य' नामक गुणनुं स्वरूप दर्शावे छे. दाक्षिण्यं परकृत्येष्वपि
योगपरः शुभाशयो ज्ञेयः। गांभीर्यधैर्यसचिवो
मात्सर्यविघातकृत्परमः ॥४-४॥ मूलार्थ अन्य जन संबंधी कोइ पण कार्य होय ते कार्य करी प्रापवामां अडग उत्साहथी सामेल थर्बु एवो जे शुभ अध्यवसाय, ते पण गांभीर्यता अने धैर्यतानी साथे मत्सरभावनो नाश करीने ज प्रवर्ते त्यारे परम उत्कृष्ट प्रा शुभ दाक्षिण्य गुण आव्यो कहेवाय. . "स्पष्टीकरण"
'दाक्षिण्यता' नो टुंक अर्थ एटलो ज के-सर्वने अनुकूल पोतानुं वर्तन राखg अर्थात् हीन, मध्यम अने उच्च एवा त्रणे वर्ग पैकीना कोइ पण मनुष्य साथे एवं वर्तन राखवू