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( २७९) दानादि कार्यों अशुद्ध ज छे एम स्पष्ट कहुं छे.
न्यायनुं स्वरूप आ प्रमाणे शास्त्रमा दर्शाव्यु छ-"स्वामीद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वासुने छलवो, चोरी आदि निन्दनीय कार्योथी जे धन पेदा करवू तेने छोडी अन्य व्यापारद्वारा धन पेदा करवाना पातपोताना कुलने उचित जे प्राचारो तेनुं नाम न्याय अने तेवी प्रवृत्तिथी जे धन प्राप्त थाय ते न्यायोपार्जित धन समजवू." आ रीतथी आवेल धन पवित्र बुद्धिवाद् अने ग्रह्य पापकर्म रहित होवाथी तेनो भोग अने सत्पात्रमां दान सुष्टु फल आपनार बने छे. शास्त्रो कहे छे के-न्यायोपार्जित धननो सत्पात्रमा उपयोग करवाथी पुण्यानुबंधी पुण्य बंधाय छे. उपर कह्या प्रमाणे न्यायथी द्रव्य उपार्जी तेनाथी प्राप्त थयेल द्रव्यनो सत्पात्रमा एटले मोक्षसाधक सन्मुनियोने दान देवामां उपयोग करवो तेम ज जिनपूजन पण न्यायोपार्जित धनथी प्राप्य पुष्प-फलादिवडे करवी. एटले जिनवचन पर श्रद्धा राखनार उपरोक्त विधिसेवा दानादि कार्योमां प्राप्त करे छे, परंतु प्रा विधिसेवा एटले शास्त्रमा जे विधि अनुष्टान दर्शावेल छे तेनी प्राप्ति तो " गुरुपारतंत्र्ययो. गात् " गुदिनी आज्ञामां वर्तवाथी ज थाय किंतु स्वतंत्र वर्तवाथी कदापि थाय नहीं; कारण के जिनवचन- मुख्य रहस्य केवल महर्षि गुरुप्रोने आधीन होय छे. अने जे गुरुथी निरपेक्ष थाय तथा स्वबुद्धिने ज प्रत्येक कार्यमा आगल करे ते