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अन्यथा जेम देवदत्ते करेल कार्यो भने कर्मों यज्ञदत्तने स्मरणमां तथा भोगमां पावता नथी, तेम पूर्वावस्थामां करेल कार्योंनुं स्मरण तथा कर्मोनो भोग उत्तरावस्थामां प्रात्माने बाल अवस्थामां करेल कार्योना स्मरणनी माफक संभवे ज नहीं. अतएव प्रात्मा उत्पत्ति श्रादि विशिष्ट धर्मवान् छे ए शास्त्रोक्त तत्त्व प्रमाणथी अविरुद्ध सिद्ध थाय छे, एवं आत्मा प्रत्येक शरीरभेदे भिन्न भिन्न छ तो पण आत्मरूप स्वरूपनी अपेक्षाए सर्व आत्माओ तुल्यरूप छ अर्थात् मनुष्य, देव आदिमां जेवू आत्मतत्त्व छे तेवू ज प्रात्मतत्त्व एक कीडामां अने हाथीना शरीरमां पण छे. हा मात्र मनुष्यमां केटलीक विशेष प्रात्मशक्तियो आविर्भूत छे, उत्तरोत्तर विकास थतो देखाय छे, ज्यारे देवोमां एथी पण अधिक आत्मशक्तियो विकसित होय के अने कीडाओमां ए सर्व शक्तियो कर्मोना जोरे तिरोभावपणे रहेल होय छे, निदान के-अगाध बुद्धिमान् सर्व विद्यासंपन कोई मनुष्य वेदना या मदिराथी मूञ्छित थया पछी तेनी सर्व शक्तिप्रो विद्यमान छतां तिरोभावरूपे थइ गयेल आपणे अनुभवीये छीने, एवं कीडा जेवी अधम योनि प्रविष्ट आत्मानी सर्व शक्तियो अधमयोनि तथा अपारकर्मोना कारणे दबायेल ज छे एम मानवू जोइये, नहीं के तेप्रोमां आत्मा नथी अथवा शक्तियोनो अभाव छे. निष्कर्ष ए के-आत्मत्वरूपेण सर्वात्माओ तुल्य स्वरूपवान् होवाथी सामान्यरूपे एक न छे, ने विशेष रूपेण अनंत आत्माओ छे. निदान के-ए रीते प्रात्मा प्रत्यक्ष