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(१३८) असंभव दोषत्रयशून्य होय तो ज समिचीन कहुं छे. "स्वलक्षण"
अत्र धर्मर्नु स्वलक्षण जणाववा पूर्वे ग्रंयकर्ता कहे छे केइच्छित धर्मर्नु स्वलक्षण केवळ सामान्य न जाणवू, किन्तु प्रा लक्षण "सर्वागमपरिशुद्ध" छ दर्शनना जे जे शास्त्रो ते ते शास्त्रोनी कसोटीद्वारा सर्वतोप्रकारे शुद्ध-निर्दोष होवु जोइए. अर्थात् धर्मनुं स्वलक्षण एवं दर्शावq-दर्शाव्यु छ के छए दर्शनोना विद्वानो पोताना शास्त्ररूपी इथोडावडे घ[ये कूटे तो पण जे खंडित न थाय, परंतु सत्य सुवर्णनी माफक निर्दोष अने स्वीकार्यरूपे जाहेर थाय. एवं खाली निर्दोष अने स्वीकार्य होय आटलं ज नहीं किन्तु आचार्यश्री वधु भार दइने कहे छे के-" यदादिमध्यांतकल्याणम् " जे धर्मर्नु स्वलक्षण आदिमां, मध्यमां अने अंतमां कणस्वरूप कल्याणफलप्रदात होय. एटले नितान्त लक्षण ज एवं छे केज्यारे तथाप्रकारना धर्मनो आदर करे ते समये, आदर कर्या पछी, एवं धर्मना अंतमा ज्यां देखो त्यां मोदक के साकरनी माफक सुंदर फलने ज अर्पण करे छे अर्थात् तेनो कोइ पण अंश एवो नथी के ज्यां कल्याण ज न होय. टुंकमां
४-"असंभवो नाम लक्ष्यमात्रे कुत्रापि लक्षणासत्त्वम् " लक्ष्यमां लक्षण सर्वथा लागु न थाय ते असंभव, यथा 'गो' नुं मक्षण 'गो' मा लागु ज न थाय ते.