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(५४) "सर्वमिदमनादि स्यात्" सर्वज्ञवचन आदि अने अनादि बे प्रकारे जाणवू. अमुक अमुक सर्वज्ञनी अपेक्षाए आदि वचन, अने महाविदेह आदि क्षेत्रोनी अपेक्षाए अनादि वचन अथवा प्रवाहनी अपेक्षाए अनादि वचन जाणवू. एटले भूतकाळमां श्रा सर्वज्ञवचन हतुं, वर्तमानमां छे अने भविष्यमां रहेवार्नु. एवो कोइ काल नथी के जे काले या सर्वज्ञप्रवचन न होय.
अहीं एक बात बराबर ध्यानमा राखवानी छे, अने ते ए के-सर्वज्ञपणुं कोइ पण व्यक्तिने अनादिनुं घटे नहीं किन्तु अल्पज्ञ ज कालक्रमे कर्मों नाश करी सर्वज्ञपणुं प्राप्त करे एम युक्ति अने प्रमाणथी सिद्ध थाय छे; अन्यथा अमुक व्यक्तिने सर्वज्ञपणुं अनादिनु ज मान्य होय तो आपणे जीवोना जीवात्मा अने सर्वज्ञात्मा एम बे भेदो अनादिना नज मानवा जोइये. ____ आ परथी जेम सर्वज्ञात्मा ते सर्वज्ञ होवाथी कदापि जीवात्मपणामां आवता नथी, अगर आवे तो तेश्रोने पण एक प्रकारनु अरघट्टघटीयंत्रनी माफक पर्यटन ज रघु कहेवाय; अने तेम थवाथी सर्वज्ञ छतां तेत्रो असर्वज्ञनी बराबर ज कहेवाय, एवं जीवात्माए पण जीवात्मरूप स्वस्वभावनो त्याग करी सर्वज्ञपणुं कदापि प्राप्त न करवू जोइये. करे तो अनादिनुं जीवात्मपणु क्यांथी रहे ? नज रहे, किंतु जीवात्मा जीवस्वरूप छोडी सर्वज्ञपणुं तो अवश्य प्राप्त करे छेज. वधुमां उपरोक्त अनादिना वे भेदो पण कन्पितज मानवा जोइये. टुंकमां वस्तुगत्या स्थित अनादि भेदोर्नु परिवर्तन कदापि संभवे ज नहीं, जेम अनादिथी