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(६२) तेश्रो काइ धर्मी कहेवाय नहीं किन्तु अधर्मने ज वधारे सेवे छे. प्रारीते कथन करवाथी बालजीवो जे वेशना अनुरागथी यत्किंचित् धर्म साधता होय, क्रमशः अधिक धर्म पामता होय तेनो त्याग करी तेश्रो पण वेशने अबहुमानथी जोवा शीखे, निंदता शीखे छे, अने तेम थवाथी विचारा बालजीवो धर्मभ्रष्ट बनीं अपरिणामी अथवा विपरीणामी बने ए स्वाभाविक छे. आ पाप केवल योग्यने योग्य धर्मदेशना न देवाथी थाय छे, यावत् ग्रंथकार कहे के के-छेवटे "भवगहने दारुणविपाकं" उपरोक्त प्रतिकूल धर्मदेशना ते ते लोकोने संसारसमुद्रमां डूबाडी भयंकर कटुक फल अर्पनार बने छे. परमार्थ के-श्रोता अने वक्ता बने आ रीतनी धर्मदेशनाथी भवसमुद्रमां अथडाय छे. अरे ! वक्ता तो अधिकतया कटुक फल पण उपार्जन करे छे, कारण के-खरो विचार तो प्रथम वक्तानेज करवो जोइये. ज्ञान विना धर्मदेशना आपवानो साहस करवो तथा प्रभुज्ञाननो अनादर करवो ए वक्ता माटे महापापकारी केम न कहेवाय १ खरेखर व्यवहारमां पण कायदानो जाणकार थइ कायदानो अनादर करी गुन्हो करनार चकील बेरिष्टरने ओछी सजा भोगववी नथी पडती ॥
उपरना कथनथी अहीं आश्चर्य साथे वधु शंका पेदा थाय छ के-आचार्यों जे धर्मोपदेश आपे छे ते यदि सर्वज्ञकथितज होय तो ते गमे तेना सामे कथन करवामां आवे एथी ते अनर्थ उत्पन्न केम करी शके ? कारण उपदेश सर्वज्ञदर्शीत