Book Title: Shodashak Granth Vivaran
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Keshavlal Jain
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(४१६) विचारवाथी वधे छे. अहीं आ श्लोकमां प्रत्येक पदो प्रतिष्ठासमयलभ्य भावना विशेषतया ग्रंथकर्ताए धर्या छे एटले ए भाव केवा प्रकारनो छे एम दर्शाव्युं छे. श्लोकान्तर्गत प्रत्येक विशेषणो सार्थ अने समन्वित होवाथी अतिगंभीर बुद्धिए विचारवा योग्य छे. प्रथम तो शास्त्रकर्ता कहे छे के'निरपाय:' अपाय एटले विनो-पापो-दोषो तेनाथी अतीत निरनिराळो आ भाव छे. हेतु ए के-आ भावनी प्राप्ति थया पछी आत्माने अनर्थकारी प्रत्यवायो नडता नथी; किन्तु अनर्थपरंपरानो नाश ज थाय छे. आम छतां 'सिद्धार्थः' आ भावनी प्राप्ति बाद सर्व अर्थोनी आबाद सिद्धि-निष्पत्ति थाय छे. एवं आ भाव 'स्वात्मस्थः' स्वात्मवृत्ति ज छे अर्थात् ते बाह्य पदार्थवृत्ति नथी; कारण के-बाह्यपदार्थवृत्ति भाव पौद्गलिक कहेवाय अने ते पापकारी होवाथी एकान्त हेयरूप छे ज्यारे स्वात्म संबंधी भाव विशुद्धतर अने शुभ फलदायी होवाथी अंगीकार्यरूप कह्यो छे. तथा मंत्री जेम विशिष्ट फलकारी अने आराध्य होय छे तेम आ भाव पण खास आत्मिक शक्तिओनो विकासकारी अने अनंतशक्ति प्रकटावनार होवाथी ‘मंत्रराट् ' मंत्रराज जाणवो. फरीने ए ज भाव मायालेपथी निर्लेप होवाथी असंगरूप पण छे, अने आत्मानो परमशुद्ध अप्रतिपाति अने शाश्वत आनंददाता होवाथी आनंदरूप पण जाणवो. अन्तमां शास्त्रकर्ता ढूंकमां जणावे छे के-'ब्रह्मरसः' सत्-चित्-आनंद ए त्रिगुणरूप

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