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तुमने देखा, भक्त जाता है मंदिर में, स्तुति करता...स्तुति यानी रिश्वत। 'स्तुति' शब्द भी बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका मतलब होता है : खुशामद। स्तुति करता है कि तुम महान हो और हम तो दीन-हीन; और तुम पतितपावन और हम तो पापी! अपने को छोटा करके दिखाता है, उनको बड़ा करके दिखाता है। यह तुम किसको धोखा दे रहे हो? यही तो ढंग है खुशामद का। इसी तरह तो तुम राजनेता के पास जाते हो और उसको फलाते हो कि 'तम महान हो, कि आपके बाद देश का क्या होगा! अंधकार ही अंधकार है!' पहले उसे फुलाते हो और अपने को कहते हो, 'हम तो चरण-रज हैं, आपके सेवक हैं।' जब वह खूब फूल जाता है, तब तुम अपना निवेदन प्रस्तुत करते हो। फिर वह इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि इतने महान व्यक्ति से इनकार निकले, यह बात जंचती नहीं। मजबूरी में उसे स्वीकार करना पड़ता है। तुम सीधे जा कर मांग खड़ी कर देते, निकलवा देता दरवाजे के बाहर। खुशामद राजी कर लेती है। तुम परमात्मा के साथ भी वही कर रहे हो।
नहीं. यह कछ रिश्वत से बेहतर नहीं है। यह रिश्वत ही है। यह एक बड़े पैमाने पर रिश्वत है।
यह तो मेरा आदेश नहीं। मैं तमसे कहता हं: जागो। मैं तमसे यह नहीं कहता कि रिश्वत लेने से नरक में पड़ोगे, क्योंकि कुछ पक्का नहीं है। अगर रिश्वत चलती है तो वहां भी चलती होगी। अगर ठीक से रिश्वत दे पाये तो वहां भी बच जाओगे। अगर शैतान की जेब गरम कर दी तो तुम पर जरा नजर रखेगा; जरा कम जलते कढ़ाए में डालेगा। या तुम्हें कुछ ऐसे काम में लगा देगा कि तुम...कढ़ाए में डालने के लिए भी तो लोगों की जरूरत पड़ती होगी...तुम्हें स्वयं सेवक बना देगा कि तुम चलो, यह काम करो। और पक्का नहीं है कुछ, स्वर्ग के दरवाजे पर भी कोई नहीं जानता कि रिश्वत चलती हो। क्योंकि जो यहां है सो वहां है। जैसा यहां है वैसा वहां है।
इजिप्त का पुराना सूत्र है : 'एज़ अबव सो बिलो।' जैसा ऊपर वैसा नीचे। मैं कहता हूं : जैसा नीचे वैसा ऊपर। क्योंकि एक ही तो अस्तित्व है। यह एक ही अस्तित्व का फैलाव है। तो मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम रिश्वत इसीलिए छोड़ दो कि नरक में न जाओ। अगर नरक में न ही जाना हो तो मैं मानता हूं कि तुम रिश्वत का अभ्यास जारी रखो, काम पड़ेगा। अगर स्वर्ग में जाने का पक्का ही कर लिया हो तो खूब पुण्य के सिक्के इकट्ठे कर लो, वे काम पड़ेंगे।
और तुम्हारे देवी-देवता कुछ बहुत अच्छी हालत में मालूम नहीं होते। तुम अपने पुराण पढ़ कर देख लो, तो इनसे कुछ ऐसी तुम आशा करते हो कि ये कोई साधु-महात्मा हैं, ऐसा मालूम नहीं पड़ता।
तुम देखते हो, जरा कोई महात्मा महात्मापन में बढ़ने लगता है, इंद्र का सिंहासन कंपने लगता है! यह भी बड़े मजे की बात है। यह इंद्र को इतनी घबड़ाहट होने लगती है। यहां भी प्रतिस्पर्धा है। यहां भी डर है कि दूसरा प्रतियोगी आ रहा है, कि ये चले आ रहे हैं जयप्रकाश नारायण, घबड़ाहट है! उपद्रव है! जैसा यहां है वैसा वहां मालूम पड़ता है। तपस्वी ध्यान कर रहे हैं, इंद्र घबड़ा रहे हैं।
और देवताओं के बीच बड़े उपद्रव हैं। कोई किसी की पत्नी ले कर भाग जाता है, कोई किसी को धोखा दे देता है। यहां तक कि देवता आ कर जमीन पर दूसरों की पत्नियों के साथ संभोग कर जाते हैं; ऋषि-मुनियों की पत्नियों को दगा दे जाते हैं। वे बेचारे ध्यान इत्यादि कर रहे हैं, अपनी माला जप रहे हैं। इन पर तो दया करो! इनका तो कुछ खयाल करो। मगर नहीं, कोई इसकी चिंता नहीं है।
तुम अपने पुराण पढ़ो तो तुम पाओगे तुमसे भिन्न तुम्हारे देवता नहीं हैं। तुम्हारा ही विस्तार हैं।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4