Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता
उत्पन्न हो जाती हैं। इन प्रवृत्तियों के अन्तर्गत जीव की 'तृष्णाओं' का उल्लेख हुआ है-क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार जैसी प्रवृत्तियों का उल्लेख हुआ है। यों तो सभी भारतीय दर्शनों में इन प्रवृत्तियों का उल्लेख हुआ है, किन्तु, वह उस रूप में नहीं, जिस रूप में जैन दर्शन में होता है। यहाँ तो इन प्रवृत्तियों को शरीर में घिरी चेतना से शरीर एवं इन्द्रियों की सीमितता से संचालित होने की बात की गई है और यही तो आज के आधुनिक युग में स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। हम अपने समाज को ही देखें, अभी इस पर आधुनिकता पूर्ण रूप से छाई नहीं है, किन्तु, फिर भी आज हमारे सभी कार्यों का मूल प्रेरक क्रोध, अहंकार, मोह तथा लोभ जैसी प्रवृत्तियाँ ही बनती जा रही हैं। आज का मानव स्वभावत: असहनशील हो चला है, अपनी मानसिक चंचलता में वह अतिशीघ्र उत्तेजित हो जाता है, उसके कार्य मोह एवं लोभ से ही प्रेरित रहते हैं। भौतिकवादी आकर्षण, स्पर्धा, भौतिक उपलब्धियों को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त कर लेने का लोभ ही हमारे आज के जीवन का आधार बनता जा रहा है। जैन तीर्थंकरों ने बन्धन के जिस ढंग एवं रूप को समझा था-वह आज के जीवन में स्पष्ट एवं प्रबल रूप में व्याप्त होता जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन का यह विवरण आज के ही युग का यथार्थ चित्रण है।
इसकी यथार्थता इस बात से भी सिद्ध होती है कि यह जैन दर्शन के 'द्रव्य-बन्धन' एवं 'भाव-बन्धन' के विचार के भी अनुरूप है। शरीर में घिरकर चेतना का सीमित होना बन्धन का यथार्थ रूप है-यह 'द्रव्य-बन्धन' है। किन्तु जैन मनीषियों ने यह समझा है कि इस स्थूल बन्धन के पीछे हमारी मानसिकता का बन्धन है । 'कषाय' मानसिक प्रवृत्तियाँ हैं, और इन्हीं प्रवृत्तियाँ के कारण हम स्थूल बन्धन में भी बँध जाते हैं। हमारी 'तृष्णाएँ' ही 'भाव-बन्धन' के उपकरण हैं। यह ‘भाव-बन्धन' आज के मानव के जीवन में स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। उदाहरणत:, आधुनिकता के प्रभाव में भौतिक उपलब्धियों के पीछे दौड़ने के लिए हमें एक आन्तरिक विवशता की अनुभूति होती है। साधारण उदाहरणों में यह स्पष्ट रूप में दिखाई देता है। एक सामान्य व्यक्ति को एक VCR प्राप्त करने की इच्छा जागती है। अब यह इच्छा इतनी प्रबल हो जाती है कि वह 'तृष्णा' का रूप ले लेती है, हम तबतक मानसिक रूप से चंचल एवं अशान्त रहते हैं, जबतक इसे प्राप्त नहीं कर लेते । सम्भवत: उसे प्राप्त करने के बाद उसका उपयोग भी कम ही करें, किन्तु यह तृष्णात्मक मानसिकता हमें पूर्णतया अपने वश में किये रहती है। भाव-बन्धन का इतना स्पष्ट रूप सम्भवत: तीर्थंकरों के काल में उजागर नहीं हुआ हो। आज के मानव का आत्मनियन्त्रण पूर्णतया शिथिल हो गया है, वह अपनी मानसिकता के इस भाव-बन्धन में पूर्णतया बँधा हुआ है।
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