Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
__“जब उस रमणी की आत्मा अपने निर्दिष्ट नृत्य-प्रदेश को उड़ चलती है, तब अपनी वाणी द्वारा नहीं, अपितु युवाकाल के स्वप्नों के बीच बनी असंस्कृत भाषा या संकेत, जिसके द्वारा मैं प्रकट कर सकता हूँ, उसे प्रत्यक्ष होने दो।"
___ इस प्रकार की भाषा ही निगूढ सत्य को काव्य का रूप प्रदान करती है । इस प्रकार की शिल्प-विधि भारतीय-साहित्य के लिए कोई नवीन बात नहीं है। वैदिक लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक आर्यभाषाओं के साहित्य में इस प्रकार की रूपक-शैली का क्रमिक विकास देखा जा सकता है।
भारतीय-परम्परा किसी भी शास्त्र के प्रवर्तन का मूल उत्स वेदों में खोजती है। भारतीय चिन्तक इतना विनम्र होता है कि अपने को किसी भी ज्ञान का प्रवर्तक नहीं मानता। इसके विपरीत उसका आस्तिक हृदय यह स्वीकार करता है कि ज्ञान का बीज मूल रूप में वेदों में सुरक्षित है। जो उतने अधिक आस्तिक नहीं हैं, वे भी मानव की प्रथम साहित्यिक कृति होने के कारण वेदों के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। वेदों में अनेक रूपक-कथाएँ निबद्ध हैं, जिनमें अधिकांश अलंकारिक रूप में आई हैं। उदाहरण के लिए, ऋग्वेद के प्रसिद्ध यम-यमी-संवाद (ऋ. १०.१०), पुरूरवा-उर्वशी-संवाद (१०.९५), सरमा-पणि-संवाद (१०.१०८), विश्वामित्र और नदियों के संवाद (३.३३) को लिया जा सकता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शुनःशेप की कथा (क क्. १.२४.१) को भी एक आलंकारिक रूपक ही माना है । वेदों के मन्त्रभाग और ब्राह्मणभाग में अमूर्त भावनाओं को मूर्त रूप में व्यक्त करनेवाली अनेक रूपक-कथाएँ आई हैं। ये कथाएँ किसी सूक्ष्म भावसत्ता को व्यक्त करना चाहती हैं। शतपथब्राह्मण में उल्लिखित इन्द्र-वृत्रासुर-संघर्ष, अहल्या-इन्द्र-प्रसंग, मनु-इडा-श्रद्धाप्रसंग, देवासुर-संग्राम आदि कथाएँ रूपकात्मक शैली में ही अभिव्यक्त हैं।
उपनिषदों में भी ब्रह्म एवं जीव की जिज्ञासा से उद्भूत आकांक्षाओं की रहस्यात्मक अभिव्यक्ति आध्यात्मिक रूपकों के माध्यम से हुई है। कठोपनिषद् (३.३४) में शरीर को रथ, आत्मा को रथी, बुद्धि को सारथी, मन को रास तथा इन्द्रियों को घोड़ा कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् (६.१४) में यज्ञ का रूपक बाँधकर स्त्री का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। उपनिषदों में अक्षर, शब्द और वाक्य–तीनों की प्रतीक-योजना ही है और ये प्रतीक-कथा को अभिनव अर्थ से मण्डित कर देते हैं।
वेदों के बाद यदि किसी ग्रन्थ की प्रतिष्ठा है तो वह आदिकाव्य रामायण की ही है। उसे वेदान्त-भाग का उपबृंहण-रूप कहा गया है-वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राह्यतः प्रभुः । वाल्मीकिरामायण में रूपक-तत्त्व का समावेश कितना हुआ है, यह कहना कठिन है। बेवर रामायण को एक ऐसा रूपक-काव्य मानते हैं, जो जातीय जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों
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