Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
अंग-संचालन होता है, इसी प्रकार तालवृत्त में ध्वनि की तालबद्धता होती है। इसका आधार कालमात्रा है। एक लघुवर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय को कालमात्रा कहते हैं। ताल समय या काल की निश्चित इकाई का सूचक होता है। इसीसे डा. वेलंकर ने ताल की परिभाषा दी है : “संगीत, नृत्य या छन्दोरचना में समान काल-परिमाण के अन्तर से बार-बार आनेवाली यति के बलाघात द्वारा नियन्त्रण को ताल कहते हैं।"१९
वर्णमात्रा में वर्गों का शुद्ध उच्चारण अपेक्षित होता है, किन्तु तालमात्रा में वर्गों का शुद्ध उच्चारण अनिवार्य नहीं है । इसमें ताल के आघात के हिसाब से वर्णों का उच्चारण होता है। कभी-कभी ताल के आग्रहवश वर्णों का उच्चारण नहीं भी होता है।
तालवृत्त को एक प्रकार का मुक्तछन्द कह सकते हैं, जिसमें सभी चरणों की लम्बाई एक समान नहीं होती। किसी चरण में दो ताल होते हैं तो किसी में अधिक या कम, किन्तु नियम यह है कि एक ही ताल की आवृत्ति बार-बार होनी चाहिए, जिससे ताल एवं लय में व्यवधान न हो।
प्राकृत-अपभ्रंश में ऐसे छन्दों की भरमार थी, जो मूलतः तालवृत्त थे, किन्तु आचार्यों ने उनका संस्कार कर उन्हें वर्णवृत्त या मात्रावृत्त का रूप दे दिया। दोहा, पज्झटिका, पादाकुलक आदि छन्द तालवृत्त ही थे, जो मात्रावृत्त के रूप में परिणत हो गये। इस प्रकार तालवृत्त जो प्रारम्भ में जनसमुदाय की चीज थी, आचार्यों के हाथों में पड़कर क्रमशः मात्रिक वृत्त का रूप धारण करने लगा। मात्रावृत्त
किसी ध्वनि के उच्चारण में समय की जो मात्रा लगती है, उसे मात्रा या मात्राकाल कहते हैं। किसी ध्वनि के उच्चारण में कम समय लगता है, किसी में बहुत कम, किसी में अधिक और किसी में बहुत अधिक । कम समयवाली मात्रा ह्रस्व, अधिक समयवाली दीर्घ और उससे भी अधिक समयवाली प्लुत कही जाती है। इसी आधार पर मोटे रूप में मात्रा के पाँच भेद किये गये है : ह्रस्वार्ध, ह्रस्व, ईषत् दीर्घ, दीर्घ और प्लुत । ये विभाग मोटे रूप में हैं, मशीनों के आधार पर तो इसके पचासों भेद किये जा सकते हैं। नारदशिक्षा, ऋक्-प्रातिशाख्य और व्याकरण-ग्रन्थों में इनका सूक्ष्म अध्ययन किया गया है । छन्दःशास्त्र में इसके दो ही भेद किये गये हैं : ह्रस्व और दीर्घ । दीर्घ का उच्चारणकाल ह्रस्व की अपेक्षा दूना स्वीकार किया गया है । इस प्रकार ह्रस्व (1) अर्थात् लघुवर्ण में एक मात्रा और दीर्घ (5) अर्थात् गुरु वर्ण में दो मात्राएँ गिनी जाती हैं।
मात्रा-गणना पर आधारित छन्द मात्रिक कहे जाते हैं। इनमें वर्गों की संख्या भिन्न हो सकती है, किन्तु मात्राओं की संख्या निश्चित होती है। प्राकृत-अपभ्रंश में मात्रा छन्दों का ही प्राधान्य रहा है।
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