Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 263
________________ 234 प्रवृत्ति ही सुख-दुःख का प्रमुख कारक है। जब तक प्रवृत्ति शुद्ध नहीं रहती, तबतक संयम और तप से कोई लाभ नहीं होता । अतः राग-द्वेष की दुष्प्रवृत्ति का त्यागकर संन्यास-धर्म के अवलम्बन से ही सद्भाग्य का निर्माण सम्भव है । संयम एवं तप में प्रवृत्त होने के लिए संकल्प-शक्ति, धैर्य, सन्तोष, चित्त- स्थैर्य आदि सत्प्रवृत्तियाँ आवश्यक हैं। संयम के प्रति श्रद्धा होने पर भी बिना सत्प्रवृत्तियों के व्यक्ति उसमें पराक्रम नहीं कर पाता । सत्प्रवृत्तियों के बाद ही सम्यग्ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है और व्यक्ति की निष्ठा पुरुषार्थ में होती है । वह संयम और तप में अग्रसर होता है । संयम और तप के द्वारा आत्मा को नियन्त्रित किये बिना सच्चे सुख की उपलब्धि असम्भव है । श्रेय को प्राप्त करने का इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं है । वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । १८ यद्यपि Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 .१९ अप्पा हु खलु दु आत्मविजय ही परम विजय है । । २० एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ । मिराजा को जब सत्य का बोध हो गया, तब वे इन्द्र के लाख प्रयासों एवं प्रलोभनों के बावजूद पथभ्रष्ट नहीं हुए तथा आत्मसंयम एवं तप में रत होकर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । संयम एवं तप के आचरण से देह तथा संसार से ममत्व का त्याग सम्पन्न होता Jain Education International । आसक्ति के अभाव में कर्मों का क्षय निष्पन्न होता है तथा कर्मानुगत दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है। त्याग एवं तप, जो श्रामण्य के लक्षण हैं, के अनुपालन से मुक्ति की बात उत्तराध्ययनसूत्र के कई अध्ययनों - यथा 'संजइज्जं, मियापुतिज्जं' आदि में स्पष्ट रूप उद्घोषित है। यह ध्यातव्य है कि त्याग या विरक्ति का तात्पर्य कदापि संसार या सांसारिक वस्तुओं का पूर्ण निराकरण या बहिष्करण नहीं होता । यदि हम अपनी आवश्यकता के अनुसार मात्र सांसारिक जीवन-निर्वाह के हेतु ही सांसारिक वस्तुओं का उपयोग या उपभोग करें, तो वह भी त्याग ही कहलायगा । जवणट्ठा निसेवए । २१ अतः त्याग का तात्पर्य संसार या सांसारिक जीवन से पलायन नहीं है। यह कभी अकर्मण्यता को भी निमन्त्रण नहीं देता । त्यागी की अग्नि परीक्षा तो समाज और सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में ही हो सकती है। त्याग या वैराग्य एक भाव है, जो हमें. संसार में रहते हुए भी सांसारिकता से पृथक् करता है। त्यागी का उद्दिष्ट है : संयोगाविष्णमुक्कस | २२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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