Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जटासिंहनन्दी का 'वरांगचरित' और उसकी परम्परा
दुक्ख परंपरा । भावेण वोसिरे ॥ २८ ॥
तुलनीय :
संजोगमूला जीवेणं पत्ता तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं
सम्मं मे सव्वभूएस वेरं मज्झ न केणई । आसाओ वोसिरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए ॥ २२ ॥
- आतुरप्रत्याख्यान
ये तीनों गाथाएँ 'आतुरप्रत्याख्यान' से सीधे 'वरांगचरित' में गईं या 'मूलाचार' के माध्यम से 'वरांगचरित' में गई, यह एक अलग प्रश्न है । मूलाचार यापनीय ग्रन्थ है, अतः यदि ये गाथाएँ मूलाचार से भी ली गईं हों, तो भी जटासिंहनन्दी और उनके ग्रन्थ 'वरांगचरित' के यापनीय होने की ही पुष्टि होती है यद्यपि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ये गाथाएँ पाई जाती हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने भी ये गाथाएँ मूलाचार से ही ली होंगी । पुनः मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान की लगभग सभी गाथाएँ समाहित कर ली गई हैं, अतः अन्ततोगत्वा तो ये गाथाएँ आतुरप्रत्याख्यान से ही ली गई हैं ।
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'आवश्यकनिर्युक्ति' की भी निम्नांकित दो गाथाएँ वरांगचरित में मिलती हैं। हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया 1 पासंतो पंगुलो दड्ढो धावमाणो अ अंधओ संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पंगू व समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं
॥ १ ॥
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पयाइ । पविट्ठा ॥ २ ॥
क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धिं प्रयच्छति । परिपश्यन्यथा पडुर्मुग्धो दग्धो दवाग्निना ॥९९॥ तौ यथा संप्रयुक्तौ तु दवाग्निमधिगच्छतः । तथा ज्ञानचरित्राभ्यां संसारान्मुच्यते पुमान् ॥ १०१ ॥ वरांगचरित, सर्ग २६
आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति - साहित्य का यह अनुसरण जटासिंहनन्दी और उनके ग्रन्थ को दिगम्बरेतर यापनीय या कूर्चक - सम्प्रदाय का सिद्ध करता है 1
(८) जटासिंहनन्दी ने न केवल सिद्धसेन का अनुसरण किया है, अपितु उन्होंने विमलसूरि के पउमचरिय का भी अनुसरण किया है। चाहे यह अनुसरण उन्होंने सीधे
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