Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
केवली ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, पुनः कर्म-निर्जरा (कर्म-विशुद्धि) के प्रसंग में सम्यक्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, (चरित्रमोह) उपशमक, उपशान्त (चरित्र) मोह, (चरितमोह) क्षपक, क्षीण-मोह और जिन ऐसी दस, क्रमशः विकासमान स्थितियों का चित्रण हुआ है ।२१ यदि हम अनन्त वियोजक को अप्रमत्त-संयत, दर्शनमोह क्षपक को अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर सम्पराय) और उपशमक (चरित्र मोह-उपशमक) को अनिवृत्तिकरण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय मानें, तो इस स्थिति में वहाँ दस गुणस्थानों के नाम प्रकारान्तर से मिल जाते हैं। यद्यपि अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्त-मोह तथा क्षपक आदि अवस्थाओं को उनके मूल भावों की दृष्टि से तो आध्यात्मिक विकास की इस अवधारणा से जोड़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें सीधा-सादा गुणस्थान के चौखटे में समयोजित करना कठिन है। क्योंकि, गुणस्थान-सिद्धान्त में तो चौथे गुणस्थान में ही अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षयोपशन हो जाता है। पुनः उपशम-श्रेणी से विकास करनेवाला तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम ही करता है, क्षय नहीं। अतः अनन्तवियोजक का अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मानने से उपशम-श्रेणी की दृष्टि से बाधा आती है। सम्यक्-दृष्टि, श्रावक एवं विरति के पश्चात् अनन्तवियोजक का क्रम आचार्य ने किस दृष्टि से रखा, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से दर्शनमोहक्षपक को अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के साथ योजित किया जाना चाहिए। क्षपक-श्रेणी से विचार करने पर यह बात किसी सीमा तक समझ में आ जाती है; क्योंकि आठवें गुणस्थान से ही क्षपक-श्रेणी प्रारम्भ होती है और आठवें गुणस्थान के पूर्वदर्शनमोह का पूर्ण क्षय मानना आवश्यक है। इसी प्रकार चारित्रमोह की दृष्टि से अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर सम्पराय) को चारित्रमोह उपशमक कहा जा सकता है । क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय से भी योजित किया जा सकता है, किन्तु उमास्वाति ने उपशान्तमोह और क्षीणमोह के बीच जो क्षपक की स्थिति रखी है उसका युक्तिसंगत समीकरण कर पाना कठिन है। क्योंकि ऐसी स्थिति में उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें और क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान के बीच ही उसे रखा जा सकता है, किन्तु गुणस्थान-सिद्धान्त में ऐसी बीच की कोई अवस्था नहीं है। सम्भवतः उमास्वाति दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों का प्रथम उपशम और क्षय मानते होंगे। क्षीणमोह और जिन दोनों अवधारणाओं में समान हैं। सयोगी केवली को 'जिन' कहा जा सकता है । इस प्रकार क्वचित् मतभेदों के साथ दस अवस्थाएँ तो मिल जाती हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, सम्यक्-मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली की यहाँ कोई चर्चा नहीं है। उपशम और क्षपक श्रेणी की अलग-अलग कोई चर्चा भी यहाँ नहीं है । तुलनात्मक अध्ययन के लिए आगे की तालिका उपयोगी होगी :
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