Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन -दृष्टि
साधना-मार्गों में अप्रमत्तता का महत्त्व :
साधनारत जीवन के लिए दोनों ने ही अप्रमाद को अमृतपद का पर्याय माना है । अप्रमाद अथवा जागरूकता को लक्ष्य कर महावीर ने अनेक प्रेरक पदों में साधक को प्रमादमुक्त, अप्रमत्त होकर ही विचरण करने का उपदेश दिया है। तभी विवेक शीघ्रता से प्राप्त होता है । अतः आत्मानुरक्षी साधक लौकिक कामोपभोग त्याग मोक्षमार्ग पर चले :
विप्पं न सक्के विवेगमेडं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे ।
समिच्च लोयं समया महेसो, आयाणु रक्खी चरेप्पमत्तो ॥ समयं गोयेम ! मा पमाअए।'
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ठीक इसी शैली में तथागत ने कहा-न प्रमाद में लगे रहो, न कामासक्ति का ही गुणगान करो । प्रमादरहित ध्यान में लगा पुरुष निर्वाण का विपुल सुख पाता है :
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मा पमादमनुयुञ्जथ मा कामरति संभवं । अप्पमत्तो हि झायंतो पप्पोति विपुलं सुखं ॥
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वस्तुतः जिन दोषों को त्यागकर मनुष्य निर्वाण या कैवल्य के अमृत पद को प्राप्त कर सकता है, उसके सम्बन्ध में दोनों के चिन्तन में विलक्षण साम्य है । दोनों ने ही अकुशल कर्मों हिंसा, असत्य भाषण, प्रमाद, स्तेय, परिग्रह, तृष्णा आदि का कठोर निषेध किया है, तो अहिंसा, सत्य, सद्वचन, अप्रमाद, अस्तेय, अपरिग्रह और तृष्णाक्षय पर अपने उपदेश-वचनों में बल दिया है। चूँकि दोनों ही समकालीन थे। दोनों को एक-सी धार्मिक सामाजिक समस्याएँ, रूढ़ परम्पराओं की इस्पाती दीवारें चुनौती दे रही थीं । इसलिए उनके समाधान की दृष्टि में, जीवन-दृष्टि में, सोच-समझ में, कार्यशैली में साम्य ही नहीं, एकरूपता भी है।
निर्वाण क्या है ?
हाँ, दोनों महापुरुषों के चिन्तन में थोड़ी भिन्नता भी है। बुद्ध जीवन जगत् को अनित्य और दुःखमय मानने के साथ ही आत्मा के अस्तित्व को नहीं स्वीकारते, परमात्मा या परब्रह्म को मानने का प्रश्न ही यहाँ नहीं हैं । वह तो अव्याकृत है। हाँ, उनका परमोच्च लक्ष्य है निर्वाण प्राप्ति । वह आत्मा के परमात्मा से मिलन की परिकल्पना से सर्वथा भिन्न है । उसे वह मुक्ति नहीं मानते । अश्वघोष ने निर्वाण की अवधारणा को खूब ही स्पष्ट किया है— बुझा हुआ दीपक न धरती में जाता है न आकाश में उड़ जाता है दिशाओं में भी नहीं जाता वह, केवल तेल के न रहने से शान्ति पा जाता है, वैसे ही निर्वाण (वीतरागता) प्राप्त पुण्यात्मा धरती, आकाश और दिशाओं में नहीं समाता, क्लेशों
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