Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
जैनाचार : एक मूल्यांकन
217
पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितिर्यथैव सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति । तथेति वक्तुं मृतरूढगौरवा
दहं न जात: प्रथयन्तु विद्विषः ।।। पुनः जिन्हें हम साधु पुरुष कहते हैं, उनका व्यवहार स्वयं उन्हीं के व्यक्तित्वों को पवित्र नहीं करता, बल्कि वह व्यवहार जहाँ विपन्न मनुष्यों को सुखी बनाता है, वहाँ दर्शकों को उदार, परोपकार-भावना से अनुप्राणित भी करता है। इस अर्थ में 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' उक्ति सटीक बैठती है, जो जैन आचारशास्त्र के रूप में जीवन-मूल्यों को सुरक्षित रखती हुई स्याद्वाद का व्यावहारिक पथ प्रशस्त करती है। इस परिप्रेक्ष्य में रवि बाबू की एक उक्ति याद हो आती है : “आपन हइते बाहिर होए बाहिरे दारा, बुकेर माँझे विश्व लोकेर पावि सारा” (अपने आप से बाहर निकलो, तुम अपने हृदय में सारा विश्व पा जाओगे)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org