Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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गुणस्थान-सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
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क्षपक श्रेणी के विचार के साथ गुणस्थान का एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त सामने आया होगा।
इन तथ्यों को निम्नांकित तुलनात्मक तालिका से समझा जा सकता है :
गुणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास
तत्त्वार्थ सूत्र एवं तत्त्वार्थभाष्य
कसायपाहुड
समवायांग/ श्वेताम्बर-दिगम्बर षटखण्डागम | तत्त्वार्थ की टीकाएँ
एवं भगवती आराधना, मूलाचार, समयसार, नियमसार आदि।
| ३री - ४थी शती |३री - ४थी शती
५वीं शती
|६ठी शती या उसके पश्चात्
गुणस्थान, गुणस्थान, जीवस्थान, गुणस्थान शब्द गुणस्थान की स्पष्ट जीवसमास, | जीवसमास, आदि शब्दों का अभाव, उपस्थिति जीव-स्थान आदि| का अभाव, किन्तु मार्गणा किन्तु जीव, शब्दों का पूर्ण अभाव शब्द पाया जाता है। ठाण या जव
समास के नाम
अवस्थाओं का चित्रण
कर्मविशुद्धि या कर्मविशुद्धि या| १४ ।। १४ अवस्थाओं का आध्यात्मिक विकास आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का उल्लेख है की दस अवस्थाओं दृष्टि से मिथ्यादृष्टि की उल्लेख हैं का चित्रण, मिथ्यात्व गणना करने पर कुल का अन्तर्भाव करने अवस्थाओं का उल्लेख पर ११ अवस्थाओं का उल्लेख
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