Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
किन्तु, आज हम ऐसा नहीं कर पाते; क्योंकि आज हम अपना जीवन जीते ही नहीं। आज हमारा जीवन दूसरों का अनुकरण-मात्र है, हम माँगी हुई जिन्दगी जीने लगे हैं। धरातली तौर पर तो हम बड़े व्यस्त हो गये हैं, किन्तु अपने अन्तर में हम आलसी
और अकर्मण्य हो गये हैं। फलत: हम किसी बात को जानने के लिए 'पहल' भी नहीं करते, ज्ञान भी 'उधार' ले लेते हैं। फलत: हमारी जानकारी-हमारा ज्ञान सभी 'कामचलाऊ' हो गये हैं। परिणाम यह होता है कि 'सत्यों' के प्रति हममें श्रद्धा नहीं जागती, हम शंकालु हो गये हैं, हर बात पर प्रारम्भ से ही संशय करते हैं।
'सम्यक् दर्शन' की सार्थकता इसी सन्दर्भ में है जबतक हम 'स्व' एवं 'स्व-आश्रित' चंचल प्रवृत्तियों को अपने पर हावी होने देंगे, तबतक हमारी आन्तरिकता भी चंचल ही रहेगी और हमारे सभी कर्म तदर्थता एवं दिशाहीनता से ग्रस्त रहेंगे। ऐसी मानसिकता में आस्था पनप नहीं पाती; क्योंकि आस्था में ठहराव है, चंचलता नहीं । आप्त मनीषियों के सम्पर्क से यदि ऐसी प्रारम्भिक आस्था जाग पायी, तो इसके फलस्वरूप 'चंचलता' एवं 'स्थिरता' के भेद की अनुभूति पनपेगी, और वही 'ज्ञान' का मार्ग होगा। वैसी आस्था से उत्सुकता जागेगी, कौतूहल बढ़ेगा, जिज्ञासा बढ़ेगी तथा हम ज्ञान के इच्छुक बन जायेंगे।
इसका यह अर्थ नहीं कि हम जैन विचारों या किसी धार्मिक विचार में एकाएक आस्था जगा लें। वैसा निर्देश अव्यावहारिक ही नहीं, असम्भव है । प्रथमत: तो 'आस्था की शक्ति में आस्था' आवश्यक है। यही तो हमारा आज का शंकालु मन खो चुका है। इसी सन्दर्भ में तीर्थंकरों के जीवन की समझ उपयोगी है। इसी आस्था से सम्यक् ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होगा; क्योंकि तभी बातों को स्वयं परखने, अनुभूत करने की उत्सुकता जागेगी । जैसे जैसे यह उत्सुकता बढ़ेगी, 'अनुकरणात्मक जीवन' और वास्तविक जीवन, तथा 'चंचलता' एवं वास्तविक चेतना का भेद स्पष्टतर होता जायेगा और यह दिखाई देने लगेगा कि मात्र स्व-आश्रित प्रवृत्तियों की तृप्ति में वास्तविक तृप्ति नहीं।
VII किन्तु, सबसे आवश्यक है 'आस्था' तथा 'ज्ञान' के अनुरूप जीवन । जैन मनीषियों ने इसी पर सर्वाधिक बल दिया है। जैन दर्शन में सम्यक् आचरण के विभिन्न पक्षों का इतना विशद एवं सूक्ष्म विवरण है कि जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं है। समितियाँ हैं, जिसमें चलने, बोलने, भिक्षा माँगने के ढंगों की चर्चा हुई है। मन, वचन और कर्म पर नियन्त्रण के लिए विभिन्न प्रकार की गुत्थियों का निर्देश हुआ है । दस प्रकार के धर्मों
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