Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
अपनी शुद्ध एवं मुक्त अवस्था को प्राप्त हो सकता है। यह जीव का मोक्ष है। इस पूरी प्रक्रिया का संचालन करनेवाले तत्त्व सात हैं—जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा,
और मोक्ष ।१६ इनमें पाप एवं पुण्य इन दो तत्त्वों को जोड़कर कुल नौ तत्त्व जैन दर्शन में माने जाते हैं। इनमें से जीव का सम्बन्ध जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से है। पाप, पुण्य, आस्रव, एवं बन्ध कर्म-सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं। संवर और निर्जरा के अन्तर्गत जैन धर्म की सम्पूर्ण आचार-संहिता आ जाती है। गृहस्थ और मुनिधर्म का विवेचन इन्हीं के अन्तर्गत होता है। अन्तिम तत्त्व 'मोक्ष' दर्शन की दृष्टि से जीवन की वह सर्वोत्तम अवस्था है, जिसे प्राप्त करना प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य है। इसी के लिए आत्मसाक्षात्कार एवं ध्यान आदि की साधना की जाती है।
__ जैन दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपने द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्मों के फल भोगने के लिए स्वयं जिम्मेदार है। प्राकृतिक और व्यावहारिक नियम भी यही है कि जैसा बीज बोया जाता है, उसका फल भी वैसा ही मिलता है। जैन दर्शन ने यही दृष्टि प्रदान की कि अच्छे कर्म करने से सुख और बुरे कर्म करने से दुःख मिलता है। अतः व्यक्ति को मन में अच्छी भावना रखनी चहिए, वाणी से अच्छे वचन बोलने चाहिए और शरीर से अच्छे कर्म करने चाहिए। आत्मा ऐसा करने के लिए स्वतन्त्र एवं समर्थ है। आत्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता एवं विकर्ता है। सुमार्ग पर चलनेवाला आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर चलने वाला स्वयं का शत्रु है । यथा :
अप्या कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। . अप्पा मित्तममित्तं य दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ॥१७
जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन से स्पष्ट हुआ है कि आत्मा ही अच्छे बुरे कर्मों का केन्द्र है। आत्मा मूलतः अनन्त शक्तियों का केन्द्र है । ज्ञान और चैतन्य उसके प्रमुख गुण हैं, किन्तु कर्मों के आवरण से उसका शुद्ध स्वरूप छिप जाता है । जैन आचार-संहिता प्रतिपादित करती है कि व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य होना चाहिए-आत्मा के इसी शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना तभी यह आत्मा परमात्मा हो जाता है । जैन दर्शन ने आत्मा को परमात्मा में प्रकट करने की शक्ति मनुष्य में मानी है। क्योंकि, मनुष्य में इच्छा, संकल्प और विचारशक्ति है, इसलिए वह स्वतन्त्र क्रिया कर सकता है। अतः सांसारिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति इन दोनों का मुख्य सूत्रधार मनुष्य ही है। जैन दृष्टि से यद्यपि सारी आत्माएँ समान हैं, सब में परमात्मा बनने के गुण विद्यमान हैं, तथापि उन गुणों की प्राप्ति मनुष्य-जीवन में ही सम्भव है; क्योंकि सदाचरण एवं संयम का जीवन मनुष्य-भव में ही हो सकता है, इस प्रकार, जैन आचार-संहिता ने मानव को जो प्रतिष्ठा दी है, वह अनुपम है।८
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