Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन- दृष्टि
प्रकाश पर बल दिया गया है। वे इसी अर्थ में अमृत - पुत्र माने गये हैं । उपनिषदों का लक्ष्य है मनुष्य की पशु-प्रवृत्तियों का शमन कर उसके अन्तर में निहित ईश्वरीय शक्तियों का विकास । उपनिषदों में इस नैतिकता का तर्कसंगत आधार प्रस्तुत किया गया है कि हम दूसरों की भलाई क्यों करें। क्योंकि हम सब एक हैं। दूसरों की सहायता कर अपनी ही सहायता करते हैं और दूसरों पर आघात कर खुद को चोट पहुँचाते हैं । ईशोपनिषद् का यह चिन्तन कि जो सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में महसूस करता है, सब प्राणियों में अपने-आपको देखता है, वह चरम स्थिति को प्राप्त कर लेता है। एकता की इस अनुभूति से उसके कोई मोह और शोक नहीं रह जाता । नश्वरशील जीवन का सच्चा आनन्द अक्षर ब्रह्म में ही है (नाल्पे सुखमस्ति भूमा वै सुखम् ) । इसका एक कण भी प्राणियों के लिए अमृत-तुल्य है । उपनिषदों ने आत्मज्ञान पर बल दिया। इस ज्ञान को वे अमृत का सेतु मानते हैं । उसका साधन वे ब्रह्मचर्य और तप को मानते हैं। (ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत) ।
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दोनों ही महापुरुषों के चिन्तन का सर्वोपरि लक्ष्य है कैवल्य अथवा बोध । पारम्परिक शैली में उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ब्रह्मचर्य पालन पर बल दिया गया है । 'ब्रह्मचर्य' बहुत ही व्यापक शब्द है, यह जितेन्द्रियता अथवा 'जिन' का पर्याय है । इन्द्रियों की, मन की तमाम तृष्णाओं पर विजय पाने पर आत्मप्रकाश दीप्त होकर 'अक्षर' 'परब्रह्म' का पूर्ण प्रकाश होता है । गीता में इसी उत्तमोत्तम अवस्था का उल्लेख हुआ है :
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
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निष्पाप ऋषि सब प्राणियों के हित में समर्पित हो, द्वैतता को विलीन कर ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करते हैं । यह 'निर्वाण' शब्द भारतीय तत्त्वविद्या, जैन और बौद्ध साहित्य में बहुत ही लोकप्रिय है। निर्वाण का अर्थ होता है तृष्णाओं का शमन या बुझना, यही मनुष्यत्व का चरम लक्ष्य होता है। महावीर और बुद्ध दोनों की ही वाणियों में निर्वाण को परम पद का, मोक्ष का पर्याय माना गया है :
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निब्बाणं ति अवाहंति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खमे सिवं अणावाहं जं चरंति महेसिनो ॥
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( उस स्थान के निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव अनाबाध आदि अनेक नाम हैं । वहाँ महर्षिगण ही विचरण कर सकते हैं) ।
यह सब सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य के बिना सम्भव नहीं है । इन तीनों के विना मोक्ष नहीं, कर्म-बन्धन से मुक्ति के विना निर्वाण की प्राप्ति होती ही नहीं ।
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