Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
जा रहे लोग सत्ता और सम्मान के शिखर पर आसीन होकर पूज्य बन रहे हैं। ऐसी दशा में यदि अस्तेय को प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में उतार ले, तो नित्य नये रूपों में विकसित हो रही चोरी से होनेवाली राष्ट्रीय क्षति से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। आज हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता चरित्रवान् लोगों की हैं, जो इस विकार को अपने आचरण की पवित्रता से मार सकें।
चौथा महाव्रत ब्रह्मचर्य इसी का पूर्वपक्ष है। जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का अर्थ है-वासनाओं का त्याग। यदि हम लोभ, मोह मद आदि वासनाओं को त्याग कर ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में उतार लें, तो स्वतः हमारा आचार पवित्र हो जायेगा और हमसे अस्तेय जैसे कार्य होंगे ही नहीं। अतः ब्रह्मचर्य आज के युग में उन्नत आचार-निर्माण के लिए आवश्यक है।
जैनधर्म का पाँचवाँ महाव्रत है-विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग, अर्थात् अपरिग्रह । जैनधर्म की दृष्टि में आसक्ति ही बन्धन का कारण है । अतः आसक्ति से मुक्ति आवश्यक है। जो इन्द्रियों के विषय हैं, वे ही सांसारिक आसक्तियाँ हैं, इनके कारण ही हम वासनाओं से आक्रान्त होते है, वासनाएँ ही हमसे हिंसा, अस्तेय, अमृत जैसे आचार कराती हैं । इसी कारण हम व्यक्तिगत जीवन में मोक्ष से और सामाजिक जीवन में सदाचार से दूर होते चले जा रहे हैं। प्रसंग चाहे व्यक्तिगत मोक्ष का हो, चाहे सामाजिक जीवन में चारित्रिक पतन से मुक्ति का हो, अपरिग्रह हमारे लिए एकमात्र उपाय है।
सारांशतः, इन महाव्रतों का अनुपालन करने से न केवल आचार-विचार का परिमार्जन होता है, अपितु जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहकर सांसारिक कार्यों का सम्पादन भी किया जा सकता है। इससे अपना हित तो होगा ही, समाज, राष्ट्र तथा मानवता का भी हित होगा। चरित्र की विश्वसनीयता मानव की सबसे बड़ी पूँजी है और इसका अभाव विनाश तथा पतन का मार्ग है। यदि जैनधर्म में स्वीकृत पाँच महाव्रतों को जीवन में उतार लिया जाये, तो वर्तमान कलह-कोलाहलमय मानव-जीवन की कालुष्य-वृत्ति दूर हो जाये और जागतिक लोकजीवन अमृत-किरणों की उज्ज्वलता से जगमगा उठे।
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