Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
'उत्तराध्ययनसूत्र' में वर्णित संन्यास - धर्म
सुखों से विरत रहता है। वह मनुष्यत्व रूपी मूलधन को भी गँवा बैठता है; क्योंकि विवेकशील होकर भी भावना से संयुक्त, प्रेरित एवं नियन्त्रित व्यक्ति अधोगति को प्राप्त होता है । इस तथ्य का विशद विवेचन उक्त अध्ययन में प्रभावकारी ललित दृष्टान्तों के माध्यम से किया गया है।
मानव-जीवन के लिए निर्दिष्ट चरम उत्कर्ष पर पहुँचने के लिए इच्छा का त्याग अनिवार्य है । इच्छा की पूर्ति होने से लाभ होता है तथा लाभ लोभ का जनक होता है । ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। 'कापिलियं' अध्ययन में इस सन्दर्भ की विशद व्याख्या मिलती है ।
जहा लाहो तहा लोहो, लाहालोहो पवड्ढई । १४
तृष्णा से मोह या राग-द्वेष उत्पन्न होता है और राग-द्वेष से 'प्रमत्तयोग' सम्पादित होता है, जो आत्मा में बन्धन उत्पन्न करता है । अतः तृष्णा ही सारे दुःखों का मूल है I कोई विषय अपने-आप में भला या बुरा नहीं होता। वह राग-द्वेष से सम्मिश्रित होकर ही अच्छा-बुरा बनता है । राग-द्वेष से ग्रस्त व्यक्ति के लिए विषय दुःख उत्पन्न करते हैं तथा वीतरागता ही दुःख से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है ।
१५
रागस्स दोसस्स संखएणं, एगन्त सोक्खं समुवेइ मोक्खं ।
जिसे तृष्णा नहीं है, वह राग-द्वेष, मोह का नाश कर देता है तथा जो राग-द्वेष से रहित है, वह कर्मों का क्षय कर नैसर्गिक सुख प्राप्त करता है ।
233
तृष्णा अज्ञान से उत्पन्न होती है । अतः श्रमण धर्म-तत्त्वों का ज्ञान इन्द्रिय-विषयों से विरक्ति प्रदानकर सकता है।
काम - गुणों से विरक्ति उतना आसान नहीं है 1
Jain Education International
नागो जहा पंकजलावसन्नो दट्टु थलं नाभि समेइ तीरं । एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो ॥
.१६
पुरुषार्थ से ही आसक्ति का त्याग किया जा सकता है। हम अपने भाग्य के विधाता स्वयं हैं । हम स्वयं अपने लिए सुख-दुःख अर्जित करते हैं । यदि सत्प्रवृत्ति हममें होती है तो हम सुखी होते हैं तथा दुष्प्रवृत्ति के वश में होकर हम दुःख भोगते हैं :
अप्पा कत्ता विकत्ता य...
दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं य.... दुपट्ठिय सुट्ठियो । १७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org