Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनाचार :
: एक मूल्यांकन
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विरोध जैन नीतिशास्त्र में नहीं है। ज्ञानार्णव (१५.५७ ) के अनुसार नारी को मोक्षाधिकारिणी माना गया है और केवल वासना - पूर्ति का यन्त्र न कहकर उसे सम्मान्य और पूज्य स्थान दिया गया है । पुनः ज्ञानार्णव (१२.५३) में ही कहा गया है कि “स्त्रियाँ अपने सतीत्व के महत्त्व, आचरण की पवित्रता, विनयशीलता और विवेक से धरातल को विभूषित करती हैं ।" यदि ऐसा न होता तो ब्राह्मणी, सुन्दरी, अंजना, चन्दना, राजमती आदि नारियाँ जैनधर्म में पूज्य नहीं होतीं । अतः कामवासना को मर्यादित रखने का विधान काम को नकारना नहीं । यह कहा जा सकता है कि लौकिक जीवन को उन्नत बनाने के लिए स्वच्छन्द काम एवं अर्थ का आग्रह जीवन को विश्रृंखलित एवं पथभ्रष्ट बना देता है । इसीलिए जैन नीतिशास्त्र इन दोनों पुरुषार्थों को सम्यक् स्थान नहीं दे पाता है और इन दोनों के संयमन में ही अपने निःश्रेयस का मार्ग प्रतिष्ठित करता है ।
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जैन नीतिशास्त्र में आश्रम एवं जाति-व्यवस्था के प्रति एक अपना अलग दृष्टिकोण है, जो ब्राह्मण अथवा वैदिक परम्परा से भिन्न है । वैदिक परम्परा जहाँ जीवनगत सुख को साध्य मानकर अभ्युदय के लिए सचेष्ट होता है और इसके लिए आश्रम की व्यवस्था करता है, वहीं जैनधर्म व्यक्तिगामी निवर्तक धर्म का पोषक है। उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है आत्मसाक्षात्कार और उसमें रुकावट डालनेवाली इच्छा के नाश का प्रयत्न । पुनः पण्डित सुखलालजी के शब्दों में, 'जैनधर्म सर्वप्रथम व्यक्तिवादी है, जो एकान्त चिन्तन, ध्यान, तप और असंगतापूर्ण जीवन को स्वीकार करता है । " जैनधर्म यद्यपि सर्वप्रथम व्यक्ति को प्रमुख स्थान देता है, तथापि वह आश्रम - व्यवस्था से अंशतः सहमत भी है । जैन नीतिशास्त्र का मात्र विरोध है उस आश्रम - व्यवस्था से, जो भोगविलासमय जीवन के उद्देश्यों को छूट देती है, किन्तु जैन नीतिशास्त्र आश्रम - व्यवस्था को अपने अणुव्रतों से संयत रखने के लिए अपने श्रावकों के जीवन को सुव्यवस्थित और तपोनिष्ठ बनाने का आग्रह करता है। श्रावक अपनी सीमा में सर्वदा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य एवं ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और प्रवृत्तियों में रहकर भी निवृत्तिपरक जीवन जीने का प्रयास करते हैं। उन्हें वैदिकों की तरह पितृऋण, देवऋण आदि ऋणों से उऋण होने की अपेक्षा नहीं होती और न यज्ञों की परिधि में देवताओं से कृपा की आवश्यकता होती । पुनः कहा जाता है कि जैन नीतिशास्त्र मात्र व्यक्तिपरक मोक्ष-साधन का आग्रह करता है । लेकिन ऐसी बातें भी पूर्णतः ठीक ही हैं; क्योंकि स्वयं तीर्थंकर भी संघ की वन्दना करते है । स्थानांग में दस धर्मों का विवेचन हुआ है, जिसके अन्तर्गत ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, समाजधर्म आदि का समावेश हो सका है। समन्तभद्र ने समस्त प्राणिमात्र को कल्याण की कामना करने की अपनी शुभ भावना प्रदर्शित करते हुए बताया है कि हे भगवन्, आपका यह तीर्थ सर्वोदय है :
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