Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
8
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
VI इस बन्धन से निकलना ही मोक्ष है। सीमित चेतना का शरीर के घेरे से मुक्त होना ही मोक्ष है । जैन दर्शन में कहा गया है कि इसके लिए पुद्गल-कणों का जीव में आस्रव रोकना अनिवार्य है- यह भी दो स्तरों पर । एक तो यह कि नये पुद्गलों का आस्रव न हो, जिसे 'संवर' कहा गया है, और दूसरा जिनका आस्रव हो गया है, वे शिथिल हो जायँ—इसे निर्जरा कहा गया है। 'संवर' और 'निर्जरा' की बृहत् शास्त्रीय चर्चा होती रही है। किन्तु, उन सभी विचार-विमर्श के पीछे एक साधारण-सामान्य विचार है। मनुष्य को अपने ढीले 'आत्मनियन्त्रण' को सबल बनाने का प्रयत्न करना है । बन्ध से मुक्त होने की कठोर माँगें हैं-नये पुद्गलों के आस्रव पर रोक तथा पुराने पुद्गलों का ह्रास । यह आस्रव क्रोध, मोह, लोभ जैसी प्रवृत्तियों के कारण होता है, और वह तभी सम्भव होता है, जब प्रवृत्तियाँ हम पर 'हावी' हो जाती हैं, 'जीव' से अधिक बलवान हो जाती हैं। प्रवृत्तियाँ हमारी मूल चेतन-रूप प्रवृत्तियाँ नहीं हैं, वे शारीरिक चेतना की- सीमित चेतना की प्रवृत्तियाँ हैं। तो आवश्यकता है कि जीव पुन: अपने नियन्त्रण को स्थापित करने का प्रयत्न करे, जिससे उसकी मूल चेतना सहज रूप में प्रवाहित हो सके।
यह सरल कार्य नहीं, इसके लिए सतत प्रयत्न, कठोर अनुशासन, मन-कर्म-वचन से उस दिशा में संलग्नता अनिवार्य है। सामान्य रूप में जैन दर्शन में 'त्रिरत्न' की अनुशंसा की गई है । सर्वप्रथम तो इन बातों पर एक प्रारम्भिक आस्था अनिवार्य है, पुन: मूल तत्त्वों के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाओं का त्याग आवश्यक है, तथा सबसे महत्त्वपूर्ण है चरित्र को सशक्त बनाने का कठोर अनुशासन । 'सम्यक् दर्शन', 'सम्यक् ज्ञान' तथा 'सम्यक् चरित्र' के सम्बन्ध में दी गई इन अनुशंसाओं को हम आज के परिवेश में भी सहज रूप में प्रतिष्ठित कर सकते हैं। पहले हम प्रथम दो अनुशंसाओं की चर्चा करें।
प्राथमिक प्रश्न है कि हम किस प्रकार इस मार्ग पर अग्रसर होने के लिए तत्पर हों। जैन दर्शन में तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में विश्वास उत्पन्न करने की बात की गई है। किन्तु, प्रश्न है कि यह प्रारम्भिक विश्वास भी कैसे उत्पन्न हो ! इस प्रकार के विश्वास के उत्पन्न होने की प्रेरणा क्या हो सकती है ? हम अपनी परिस्थितियों के अनुरूप इस पर विचार करें।
हमारे जीवन में अब भी अनेक अवसर ऐसे आते हैं, जब हमें किसी योग्य परामर्शदाता की आवश्यकता हो जाती है। ऐसे अवसर किसी भी क्षेत्र में हो सकते हैं-व्यापार, शिक्षा, राजनीति या अन्य कुछ। किन्तु, हर कोई हर कार्य के लिए उचित परामर्श भी नहीं दे सकता, इसके लिए 'आप्त पुरुष' या 'गुरु' की आवश्यकता होती है। 'आप्तता' अथवा 'योग्य गुरु' की पहचान क्या है? बताया गया है कि इस पहचान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org