Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
सिंह, लक्ष्मी, सूर्य, चन्द्र, निर्धूम अग्नि आदि हैं, जो उनकी जितेन्द्रियता और ज्ञान के अमृत प्रकाश के प्रतीक हैं । महावीर के जन्म लेने के क्रम में जैन साहित्य में महावीर के गर्भापहरण की घटना का भी उल्लेख है, जिसके अनुसार ब्राह्मण कुण्डग्राम में कोडाल गोत्र का ब्राह्मण ऋषभदत्त के घर देवान्दा की कोख में उत्पन्न हुए, जिन्हें इन्द्र के आदेश से हरिमैगमेष क्षत्रियकुण्डग्राम के सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला के गर्भ में रखा गया । २ उनके माध्यम से महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को ईसापूर्व ५२७ वर्ष पूर्व वैशाली के बासोकुण्ड में हुआ । बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के स्वामी शुद्धोदन और महामाया के माध्यम से धरती पर हुआ । गर्भापहरण तथा दोनों के जन्म लेने की घटनाओं में स्वप्न के अतिरिक्त भी किंचित् साम्य है । महामाया की कुक्षि में हाथी के रूप में बोधिसत्त्व का प्रवेश होता है। महावीर देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आये, पर गर्भापहरण के माध्यम से क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ से उत्पन्न हुए । इसके पीछे सम्भवतः यह भावना काम करती है कि ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रियत्व की श्रेष्ठता प्रमाणित की जाय । फिर ब्राह्मण ऋषभदेव से जन्मदातृत्व का सम्बन्ध जोड़कर ब्राह्मणत्व का प्रत्यर्पण भी हो जाता है, जो परम्परा से ज्ञान के स्रोत माने जाते थे । फिर ऋषभनाथ जैनों के आदिनाथ भी तो कहे जाते थे ।
जीवन में घटनाओं का साम्य :
महावीर वर्द्धमान और गौतम बुद्ध दोनों ही के जीवन में बाल्यकाल की शिक्षा-दीक्षा को लेकर भी बहुत समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। दोनों के ही बाल्यकाल में निमित्त-द्रष्टा ज्योतिषियों ने उन दोनों के महान् प्राज्ञ अथवा चक्रवर्ती राजा होने की भविष्यवाणी की थी । जब कुछ बड़े हुए, तब वर्द्धमान महावीर और सिद्धार्थ ( या सर्वार्थसिद्ध) दोनों को विद्याशाला में शिक्षा के लिए भेजा गया। वे दोनों ही गुरु की अपेक्षा कहीं अधिक विभिन्न विद्याओं में पारंगत निकले। इन विलक्षणताओं का उल्लेख जैन और बौद्ध ग्रन्थों में पर्याप्त अतिशयोक्तिपूर्ण शैली में मिलता है। एक जैन स्रोत के अनुसार इन्द्र ने ब्राह्मण-वेश धारण कर बालक वर्द्धमान से प्रश्न पूछे और उनका उत्तर जो मिला, वही 'ऐन्द्र व्याकरण' के रूप में प्रचलित हो गया । 'ललितविस्तर' में तो यह उल्लेख मिलता है कि आचार्य विश्वामित्र ने ब्राह्मी लिपि में गायत्री मन्त्र लिखने के लिए दिया तो उन्होंने चीनी और खस आदि विभिन्न लिपियों में वह मन्त्र लिख दिया । ४
दोनों ही भावी महापुरुषों का कौमार्य निर्भीकता, वीरता और करुणा-प्रदर्शन की घटनाओं से ओतप्रोत है। सिद्धार्थकुमार के मन में करुणा का भाव बालपन से ही उठता दिखाई देता है । वे देवदत्त द्वारा आहत हंस की प्राणरक्षा के लिए अन्त तक निर्भीकता के साथ संघर्ष करते हैं तो वर्द्धमान महावीर खेल-खेल में विशाल सर्प को वश में कर
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