Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
के कारण ऐसा अनुमान किया जाता है कि इसमें परवर्ती काल के जैन चिन्तकों के विचारों को भी किसी विद्वान् के द्वारा सम्मिलित कर दिया गया।
ज्ञातव्य है कि सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन के अन्तिम काल में मगध में एक लम्बे अन्तराल के दुर्भिक्ष के पड़ने की आशंका को देखते हुए आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त को लेकर कर्नाटक (श्रवणबेलगोलगिरि) चले गये थे। आचार्य भद्रबाहु के कर्नाटक चले जाने पर आचार्य स्थूलभद्र ने जैनों की एक संगीति बुलाई और इस संगीति के समय जैनधर्म के ११ अंगों का संग्रह तो सुविधापूर्वक हो गया, परन्तु १२वाँ अंग तबतक विलुप्त हो गया था, परन्तु इनमें से १० पूर्वो का ज्ञान उन्होंने नेपाल से इस शर्त पर अर्जित किया था कि वे इन्हें गुप्त ही रखेंगे। आचार्य स्थूलभद्र की व्यक्तिगत स्थिति और व्यक्तित्व का परिचय हमें जैनग्रन्थ 'आवश्यकसूत्र' से मिलता है, यथा : ।
"प्रथमनन्द का मन्त्री कल्पक नामक व्यक्ति था। इसी ने प्रथम नन्द को क्षत्रिय राजवंशों के विनाश के लिए प्रोत्साहित किया। नन्दों के शासनकाल में मन्त्री का पद वंशानुगत होने लगा। अत: कल्पक के बाद नवें नन्द के शासनकाल में मन्त्री हुआ शकटाल। शकटाल के दो पुत्र थे, स्थूलभद्र और श्रीयक। शकटाल की मृत्यु के बाद स्थूलभद्र को मन्त्री का पद दिया गया, परन्तु इसने इसका त्याग कर दिया और जैन भिक्षुक होना स्वीकार किया। अतः श्रीयक मन्त्री-पद पर प्रतिष्ठित हुआ।° यह यही स्थूलभद्र थे, जिन्होंने भद्रबाहु के कर्नाटक चले जाने के बाद मगध में जैनों को संगठित कर संगीति का आयोजन एवं जैन ग्रन्थों का संकलन किया था और दिगम्बर रहने के बजाय कपड़े पहनना आरम्भ कर दिया था।
आचार्य भद्रबाहु ने कनार्टक से लौटने के बाद अपनी अनुपस्थिति में संकलित जैन ग्रन्थों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं किया और न ही कपड़े पहनना ही स्वीकार किया।११ जब आचार्य भद्रबाहु का देहान्त हुआ, तब स्थूलभद्र जैनों के आचार्य हुए। आचार्य जम्बूस्वामी से आचार्य स्थूलभद्र तक जो छह आचार्य हुए, उन्हें जैनधर्म में श्रुतकेवली कहा गया है; क्योंकि उनका ज्ञान पूर्णश्रुत था और उनके लिए वही कैवल्य भी था। इन छह आचार्यों के बाद जो सात आचार्य हुए उन्हें १० पूर्वाचार्य कहा गया है; क्योंकि इन सातों को जैनधर्म के १२वें अंग के १० पर्वो ही का ज्ञान था।
अन्तिम दशपूर्वाचार्य वज्रस्वामी हुए, जिनका कालनिर्धारण जैन अनुश्रुतियों के अनुसार ईस्वी ७० में किया गया है। आचार्य वज्रस्वामी के बाद उनके शिष्य आर्यरक्षित आचार्य हुए, जिन्होंने अपने गुरु वज्रस्वामी द्वारा संकलित जैनसूत्रों को अंग-उपांगों आदि चार भागों में बाँटा । कहा गया है कि मौर्यकाल तक अंग-उपांगों का समुचित विभाजन नहीं हो सका था। सातवाहन-काल में जैन वाङ्मय के अनेक अंशों का विस्तार हुआ।
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