Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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यद्यपि सम्पूर्ण विवरण की दृष्टि से 'वरांगचरित' का कर्मसिद्धान्त-सम्बन्धी विवरण उत्तराध्ययन की अपेक्षा विकसित प्रतीत होता है। इसी प्रकार की समानता स्वर्ग-नरक के विवरण में देखी जाती है। उत्तराध्ययन में ३६ वें अध्ययन की गाथा क्रमांक २०४ से २९६ तक वरांगचरित के नवें सर्ग के श्लोक १ से १२ तक किंचित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ संस्कृत रूप में पाई जाती हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जटासिंहनन्दी भी आगमों के अनुरूप बारह देवलोकों की चर्चा करते हैं ।
इसी प्रकार प्रकीर्णक-साहित्य की भी अनेक गाथाएँ 'वरांगचरित' में अपने संस्कृतरूपान्तर के साथ पाई जाती हैं। देखें :
तुलनीय :
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
तुलनीय :
दर्शनाद्भ्रष्ट
एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते । न हि चारित्रविभ्रष्टो भ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः ॥ ९६ ॥ महता तपसा युक्तो मिध्यादृष्टिरसंयतः । तस्य सर्वज्ञसंदृष्ट्या संसारोऽनन्त उच्यते ॥ ९७ ॥
- वरांगचरित, सर्ग २६
इसी प्रकार ‘वरांगचरित' के निम्न श्लोक 'आतुरप्रत्याख्यान' में पाये जाते हैं : एकस्तु मे शाश्वतिक: स आत्मा सद्दृष्टिसज्ज्ञानगुणैरुपेतः । शेषाच मे बाह्यतमच भावा: संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते ॥ १०१ ॥ संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानुबन्धि I तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितान्तादहमुत्सृजामि सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किंचित् । आशां पुनः क्लेशसहस्रमूलां हित्वा समाधिं लघु संप्रपद्ये ॥ १०३ ॥
॥ १०२ ॥
- वरांगचरित, सर्ग ३१
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दंसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्भट्ठो । दंसणमणुपत्तस्स उ परियडणं नत्थि संसारे ॥ ६५ ॥ दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्यि निव्वाणं । सिज्झति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिज्झति ॥ ६६ ॥
- भक्तपरिज्ञा
एगो मे सामओ अप्पा नाण- दंसणसंजुओ ।
ऐसा मे बहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ २६ ॥
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