Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत- अपभ्रंश छन्द: परम्परा एवं विकास
का अनुमान इसी से किया जा सकता हैं कि परवर्ती हिन्दी - लक्षणकारों ने मात्रिक छन्दों के विवेचन के लिए एकमात्र इसी ग्रन्थ का ही अनुसरण किया है ।
प्राकृत- अपभ्रंश छन्दों का विकास
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छन्दों के दो प्रकार बताये गये हैं- वैदिक और लौकिक । वैदिक संहिताओं में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् त्रिष्टुप् जगती, पंक्ति, बृहती, विराट् आदि छन्दों को वैदिक छन्द कहा जाता है और छन्द-ग्रन्थों में वैदिक छन्द-प्रकरण के अन्तर्गत इन्हीं छन्दों का विवेचन हुआ है | महर्षि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम अपने महाकाव्य रामायण में वैदिक छन्दों से भिन्न ऐसे छन्दों का प्रयोग किया, जो लोक में प्रचलित थे । इसी से उन्हें आदिकवि कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ। वैदिक और लौकिक छन्दों की प्रकृति भिन्न है ।
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वैदिक छन्दों को अक्षर - वृत्त कहा जाता है; क्योंकि इसमें छन्दोगत या पादगत गणना का आधार अक्षर ही होते हैं, न कि लघु-गुरु का विन्यास या अक्षरों का निश्चित क्रम से विनियोग | उदाहरणार्थ, गायत्री के तीन पादों में प्रत्येक पाद में ८ अक्षर होते हैं। इसमें आठ वर्णों की ही गणना की जाती है, यह ध्यान में नहीं रखा जाता कि इन वर्णों का क्रम क्या है या इनकी पादगत स्थिति क्या है ? इसीलिए पिंगलसूत्र के टीकाकार हलायुध भट्ट ने छन्द के लिए 'अक्षरसंख्यावत् का प्रयोग किया है : छन्दः शब्देनाक्षरसंख्यावच्छन्दोऽत्राभिधीयते ( २.१ की वृत्ति) । महर्षि कात्यायन ने भी सर्वानुक्रमणी में इसी परिभाषा को स्वीकृत किया है : यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः ।
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रखकर
वैदिक छन्दों में संगीत-तत्त्व का प्राधान्य होता था । अतः इसको ध्यान उदात्त, अनुदात्त और स्वरित - इन तीन स्वर - निपातों का आधार ग्रहण किया गया । संगीत-सृष्टि के लिए या तो धीरे-धीरे स्वर-लहरियाँ उठायी जाती हैं या जोर से या बहुत जोर से । छन्द-संगीत के लिए स्वरों का आधार ग्रहण करने के कारण वैदिक छन्दों को 'स्वरवृत्त' भी कहा जाता है ।
वैदिक ऋषि स्वतन्त्रता- प्रेमी थे । वे नियमों की जटिल श्रृंखलाओं में आबद्ध हो कर चलने के पक्षपाती नहीं थे । उनकी यह स्वातन्त्र्य - प्रियता छन्द के क्षेत्र में भी दृष्टिगोचर होती है । उदाहरणार्थ, गायत्री के प्रत्येक पाद में आठ वर्णों के हिसाब से उसमें कुल चौबीस वर्ण होते हैं, किन्तु सर्वत्र ऐसा नहीं होता । प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र के प्रथम पाद ' तत्सवितुर्वरेण्यम्' में सात अक्षर ही हैं । अतः इसके लिए 'तत्सवितुर्वरेणियम्' उच्चरित करने का विधान है। इससे आठ अक्षरों की गणना पूरी हो जाती है। कहीं-कहीं तो 'इन्द्र' को 'इन्दर' की तरह उच्चरित करने की व्यवस्था है। इसी कारण वैयाकरणों ने वैदिक छन्दों को 'छान्दस प्रयोग', अर्थात् 'नियम- शैथिल्य' की संज्ञा दी है ।
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