Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निवृत्ति का समर्थन मिलता है । हिंसा की निवृत्ति के साथ अहिंसा की प्रवृत्ति आवश्यक है, नहीं तो दया, करुणा, वात्सल्य आदि प्रवृत्तियों की ओर कैसे आकृष्ट हुआ जा सकता है। उसी प्रकार असत्य के परित्याग का अर्थ है सत्य में प्रवृत्ति; अधिक संग्रह करने की निवृत्ति का तात्पर्य है अपरिग्रह की ओर प्रवृत्ति ।
व्यवहार और निश्चय का विधान यह सिद्ध करते हैं कि जैन नीतिशास्त्र लौकिक एवं पारलौकिक दोनों के उन्नयन के साधक हैं, जो अर्थ, धर्म, काम के वृत्त में ही आते हैं। वस्तुतः अर्थ एवं काम ऐहिक उन्नयन के लक्ष्य हैं और धर्म एवं मोक्ष आध्यात्मिक के। अर्थ जहाँ काम की सन्तुष्टि के साधन हैं, वहाँ धर्म मोक्षप्राप्ति के । यद्यपि यह सत्य है कि जैन नीतिशास्त्र की दिशा धर्म एवं मोक्ष साधना की ओर जाती है, लेकिन उसका आन्तरिक प्रभाव लौकिकता की ओर भी है। यही कारण है कि जैन नीतिशास्त्र की संरचना श्रमणों एवं श्रावकों के लिए भी हुई है। यद्यपि आगमों में स्पष्टतः काम एवं अर्थ की प्राप्ति का व्यामोह नहीं पाया जाता, तथापि श्रावकों का अणुव्रत संयत काम एवं अर्थ की ओर दृष्टिपात करता है। सोमदेवसूरि अपने नीतिवाक्यामृत में—“समंगं या त्रिवर्ग सेवेत” कहकर धर्म, अर्थ एवं काम के समभाव से सेवन का समर्थन करते हैं। दशवैकालिकसूत्र भी कहता है कि धर्म, अर्थ और काम को चाहे कोई परस्पर विरोधी मानता हो, परन्तु जिनवाणी के अनुसार वे जीवन-अनुष्ठान में परस्पर अविरोधी हैं :
धम्मो अत्यो कामो भिन्नते पिंडिता पडिसक्ता।
जिणवयणं उत्तिन्ना असवन्ता होंति नायव्या ।।" पुनः आचारांग में उल्लिखित अर्थलाभ की दशा में गर्व नहीं करना चाहिए :
'लाभुत्ति न मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोज्जा' उत्तराध्यन (१४.३९) के अनुसार, अगर सारे संसार पर तुम्हारा अधिकार हो जाय, दुनिया का सारा धन तुम्हें ही मिल जाय, तब भी तुम्हें वह अपर्याप्त ही प्रतीत होगा, और वह अन्त समय में तुम्हारी रक्षा भी नहीं कर सकता।' पुनः (उत्तराध्ययन, १९.१७) खेत, वस्तुएँ, सोना, पुत्र, पत्नी, बन्धु-बान्धव और इस देह को भी त्याग कर हमें अवश्य ही जाना पड़ेगा।' इसी तरह दशवैकालिक के अनुसार 'थोड़ा प्राप्त होने पर मनुष्य को झुंझलाना नहीं चाहिए।' आदि उद्धरणों से यही प्रतीत होता है कि जैन नीतिशास्त्र अपरिग्रह-प्रधान रहा है, इसलिए स्पष्टतः अर्थ को जीवन का लक्ष्य नहीं स्वीकार किया है। इसी प्रकार, ब्रह्मचर्य को विशेष स्थान देनेवाले जैनशास्त्र में विषयों से विरक्ति का भाव दरशाया गया है। इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययन (२०.४०, १६.६, १६.१४, ३२.१९), सूयगडंग (४.२.१९) आदि ग्रन्थों में उल्लिखित विषय-विरक्ति एवं कामरहित चिन्तन का आदेश दिया गया है, जिससे ध्वनित होता है कि विषय-वासना का संयमन ही मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है। काम-विरोधी होते हुए भी नारी जाति का
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