Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आध्यात्मिक रूपक-काव्य और हिन्दी के जैनकवि
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पर आधारित है। आद्यशंकराचार्य ने अपने 'आत्मबोध' नामक छोटे ग्रन्थ में रामकथा का आध्यात्मिक अर्थ किया है।
महाभारत भारतीय-जीवन में घुली-मिली ऐसी अनन्त कथाओं का अक्षय स्रोत है, जिनके संकेत बड़े गहरे हैं और जो मानव-जीवन की गहरी समस्याओं को अपने में छिपाये हुए हैं। भीष्म, युधिष्ठिर, भीम, दुर्योधन-ये कुछ नाम ऐसे हैं, जो प्रतीकात्मक से लगते हैं और इन नामों में ही व्यक्तित्व की समस्त रेखाएँ उभर आती हैं। कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में लड़े जानेवाले महाभारत को गाँधीजी ने रूपक ही माना है। ___"कुरुक्षेत्र का युद्ध तो निमित्त मात्र है। सच्चा कुरुक्षेत्र हमारा शरीर है। यह कुरुक्षेत्र है और धर्मक्षेत्र का युद्ध तो निमित्त मात्र है। यदि इसे हम ईश्वर का निवासस्थान समझें और बनायें तो यह धर्मक्षेत्र है"। (गीतामाता)
महाभारत के आदिपर्व में धर्म की दस पलियाँ मानी गई हैं—कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, मति । उसे तीन पुत्र हैं-शम, काम और हर्ष । पुत्र-वधुओं के नाम हैं-प्राप्ति, रति और नन्दा। यह वर्णन आलंकारिक और रूपकात्मक है।
___ कालिदास के 'कुमारसम्भवम्' का काम-दहन-प्रसंग एक ऐसा रूपक है, जिसमें धर्म, दर्शन एवं कला का अद्भुत सम्मिश्रण हुआ है। 'मेघदूत' कवि के जीवन का रूपक है। कवि के व्यक्तिगत जीवन का विरह ही 'मेघदूत' के यक्ष का विरह बन गया है। इसी प्रकार 'शाकुन्तलम्' की कथा के आवरण में एक सांकेतिकता है और उसकी प्रकृति की प्रत्येक सिहरन में मनुष्य के विचारों एवं कर्तव्यों का स्पष्ट समर्थन या विरोध है। भवभूति के 'उत्तररामचरित' में तमसा, मुरली आदि नदियाँ तथा पृथ्वी, वनदेवता, वनदेवी आदि प्राकृतिक उपकरण मानव के रूप में उपस्थित हैं और वे मानवी सुख-दुःख से द्रवित होते दिखाये गये हैं।
संस्कृत-साहित्य में रूपक-नाटक की परम्परा को पूर्णतया विकसित करने का श्रेय यदि एकमात्र किसी ग्रन्थ को है, तो वह है कृष्णमिश्र रचित 'प्रबोधचन्द्रोदय' । वस्तुतः 'प्रबोधचन्द्रोदय' वह पर्वतश्रृंग है, जहाँ से रूपक-नाटकों के चढ़ाव और उतार, दोनों को आसानी से देखा जा सकता है। यह एक ऐसी मौलिक कृति है, जिसने संस्कृत-साहित्य की नाटक-परम्परा में अभूतपूर्व क्रान्ति उपस्थित कर दी, जिससे प्रभावित होकर बाद में रूपक-नाटकों की एक परम्परा ही विकसित हो गई। 'प्रबोधचन्द्रोदय' के पात्र हैं—विवेक, सन्तोष, वैराग्य, संकल्प, काम, क्रोध, लोभ, मन, श्रद्धा, शान्ति, करुणा, मैत्री, क्षमा, हिंसा, तृष्णा आदि ।
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