Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन
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आस्तिक दर्शन और जैन-बौद्ध दर्शनों को नास्तिक दर्शन कहा जाता है। वस्तुतः, यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं, नितान्त मिथ्या भी है। आस्तिक और नास्तिक शब्द 'अस्ति नास्ति दिष्टं मति: । इस पाणिनि-सूत्र के अनुसार बने हैं । मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक (जिसको हम दूसरे शब्दों में इन्द्रियातीत तत्त्व भी कह सकते है) की सत्ता को नहीं माननेवाले को नास्तिक कहा जाता है। स्पष्टतः इस अर्थ में जैन और बौद्ध जैसे दर्शनों को नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता। इसके विपरीत हम तो यह समझते हैं कि शब्दों के प्रमाण को निरपेक्षता से वस्तुत पर विचार करने के कारण दूसरे दर्शनों की अपेक्षा उनका अपना एक आदरणीय वैशिष्ट्य ही है। जैन दर्शन की देन :
भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन की अपनी अनोखी देन है। भारतीय दर्शनों के लिए दर्शन शब्द का प्रयोग मूल में इसी अर्थ में हुआ होगा कि किसी भी इन्द्रियातीत तत्त्व के परीक्षण में तत्तद्व्यक्ति की स्वाभाविक रुचि, परिस्थिति या आकारिकता के भेद से जो तात्त्विक दृष्टि-भेद होता है, उसी को दर्शन शब्द से व्यक्त किया जाता है। ऐसी अवस्था में यह स्पष्ट है कि किसी तत्त्व के विषय में कोई भी तात्त्विक वस्तु ऐकान्तिक नहीं हो सकती। प्रत्येक तत्त्व में अनेकरूपता स्वभावतः होनी चाहिए और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्त्विक प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धान्त को जैन दर्शन की परिभाषा में 'अनेकान्तदर्शन' कहा गया है। जैन दर्शन का तो यह आधार-स्तम्भ है ही, परन्तु वास्तव में प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिए भी इसको आवश्यक मानना चाहिए।
_ विचार-जगत् में अनेकान्तदर्शन ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप धारण कर लेता है। इसलिए जहाँ अन्य दर्शनों में परमत-खण्डन पर बड़ा बल दिया जाता है, वहाँ जैन दर्शन का मुख्य ध्येय अनेकान्त-सिद्धान्त के आधार पर वस्तु-स्थिति-मूलक विभिन्न मतों का समन्वय रहा है। अनेकान्तवाद:
जैन धर्म की अपनी स्वतन्त्र विचारधारा है, जिसे 'स्याद्वाद' या 'अनेकान्तवाद' कहकर अभिहित किया जाता है। इस विचारधारा में एक ही वस्तु में सत्य-असत्य, नित्यत्व-अनित्यत्व, सादृश्य-विरूपत्व आदि उभय धर्मों का आरोप किया जाता है। इस प्रकार जैनमतानुसार 'सत्' या 'द्रव्य' को अनेकान्त या परिणामी या विभज्यवाद माना गया है। अर्थात् उसे विभिन्न धर्मों को अंगीकार करनेवाला या अनन्तधर्मी बताया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार तत्त्व का विचार करते समय उसमें निहित 'द्रब्य', 'क्षेत्र', 'काल' और 'भाव'-विषयक अवस्थाओं की समस्त सम्भावनाओं का लेखा-जोखा लेना
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