Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता
पर विवेचन हुआ है। जैन मुनियों ने इन्हें जीवन में कठोरता से उतारने का प्रयत्न किया है, वे तो अनुप्रेक्षा एवं परिषह के विभिन्न रूपों को भी अपने जीवन में अंगीकार कर लेते हैं । व्यावहारिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व 'पंचमहाव्रत' को दिया गया है— जिनमें 'अहिंसा' प्रमुख है । यहाँ, जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता के निर्देश के प्रयत्न में मैं 'अहिंसा' का ही प्रतिमान 'उदाहरण' के रूप में उपयोग कर रहा हूँ । इन दिनों 'अहिंसा'
सिद्धान्त की आधुनिक प्रासंगिकता, एवं अनिवार्यता की अत्यधिक चर्चा भी होने लगी है। मैं उस प्रकार की सामान्य चर्चा में नहीं उलझ रहा, हमारा यह विवेचन जैन विचारों तक ही केन्द्रित है ।
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जैन मतानुसार 'हिंसा एवं अहिंसा' के विवाद को स्पष्ट करने के लिये हिंसात्मक कर्मों की विभीषिकाओं के उदाहरणों के विश्लेषण की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है उस मानसिकता को समझने की, जो हमे हिंसा की ओर प्रवृत्त करती है । यह 'समझ' ही अहिंसा के महत्त्व को उजागर कर देती है । हम इन दिनों युद्ध की विभीषिकाओं, अणुकों में निहित विध्वंसकारी शक्तियों का भयपूर्ण चित्रण करते हैं, हम आतंकवादी गतिविधियों से त्रस्त हैं, धार्मिक दंगों से हम क्षुब्ध हैं, किन्तु, हम यह सोचने का प्रयत्न नहीं करते कि यह कैसी मानसिकता है, जो इन सबको जन्म देती है ।
जैन मनीषियों ने इसे पूर्णरूपेण समझकर अपने अहिंसा - सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। हिंसा-अहिंसा की सार्थकता अजीवतत्त्वों के लिए नहीं। हम बारूद लगाकर पत्थर तोड़ते हैं, किन्तु इसे हिंसा नहीं कहा जाता । तो हिंसा-अहिंसा का सन्दर्भ -- उसकी सार्थकता जीव जगत् में है। यदि 'जीव' का हनन होता है— जीव को चोट पहुँचती है, तो यह हिंसा है । किन्तु इसे समझना इतना सरल नहीं— 'जीव- हनन' तथा जीव को चोट पहुँचाने का बड़ा ही व्यापक अर्थ है । बात यह है कि 'जीव' के 'जीवत्व' के साथउसके 'जीव' होने में ही — उसके कुछ मूलाधिकार निहित हैं । प्रथमतः, तो यदि वह जीव है— चाहे वह पौधा हो, या कीड़ा या चींटी या मक्खी या फिर मनुष्य — उसे यह अधिकार है कि वह ‘जीये' । पुनः जगत् के प्रायः समस्त जीव बद्ध हैं, अर्थात् उन्हें एक 'शरीर' है, तो इस स्थिति में उन्हें 'कायाधिकार' भी है— यह अधिकार भी है कि उनके शरीर को कोई क्षति न पहुँचाये। हर जीव एक दृष्टि से कुछ कार्यों के लिए स्वतन्त्र है, अतः उसे एक मौलिक स्वतन्त्रता का अधिकार है । पुनः हर 'जीव' एक विशेष 'स्थिति' में है, जैसे मनुष्य को अपने 'आत्मसम्मान' - 'व्यक्तित्व की गरिमा' का भी अधिकार है । यह भी उसे अधिकार है, कि वह जो करता है उसका फल उसे मिले। जैन मतानुसार जीव की वर्तमान स्थिति उसके कर्मों के फलस्वरूप है, तो उसे यह भी अधिकार है कि जो वह करे, उसका फल भी उसे मिले । सामान्य दैनिक जीवन में भी यदि कोई उसे उसके श्रम के फल से वंचित करता है, तो यह उसके अधिकार का हनन है ।
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