Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 273
________________ 244 Vaishali Institute Research Bulletin No.8 (६) निर्जरा- निर्जरा का अर्थ है झड़ना, अर्थात् बँधे हुए कर्मों के क्षय हो जाने पर आत्मा विशुद्धावस्था (स्वरूपावस्था) को प्राप्त करता है। (७) मोक्ष-समस्त कर्मों का क्षय होने को मोक्ष कहा गया है। उपर्युक्त सात तत्त्वों में दो तत्त्व जीव और अजीव द्रव्य हैं तथा शेष पाँच तत्त्व उनकी सयोगी तथा वियोगी हैं। इन तत्त्वों को समझने से जीव मोक्षोपाय में युक्त हो जाता है। जो सच्चे सुख के मार्ग में प्रवेश करना चाहता है, उसे इन तत्त्वों की यथार्थता जानना जरूरी है। अतः जीव-तत्त्व का अर्थ है मोक्ष का अधिकारी, अजीव तत्त्व ऐसा तत्त्व है, जो जड़ होने से मोक्ष का अधिकारी नहीं है । बन्ध तत्त्व से मोक्ष का विरोधी भाव और आस्रव तत्व के उस विरोधी भाव का कारण निर्दिष्ट किया गया है । संवर-तत्त्व से मोक्ष का कारण और निर्जरा तत्त्व से मोक्ष का क्रम सूचित किया गया है। बहुत से ग्रथों में पुण्य और पाप मिलाकर नौ तत्त्व या पदार्थ माने गये हैं। परन्तु 'तत्त्वार्थसूत्र' में पुण्य तथा पाप का आस्त्रव या बन्ध तत्त्व में समावेश करके सात तत्त्व ही माने गये हैं। पुण्य और पाप दोनों, द्रव्य तथा भाव रूप से दो प्रकार के हैं। शुभ कर्म पुद्गल द्रव्य पुण्य और अशुभ कर्म पुगल द्रव्य पाप है। इसलिए द्रव्य रूप पुण्य तथा पाप, बन्ध तत्त्व में अन्तर्भूत है; क्योंकि आत्मा और कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध-विशेष ही द्रव्य बन्ध तत्त्व है। द्रव्य पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय जो भाव-पुण्य है, द्रव्य पाप का कारण अशुभ अध्यवसाय जो भाव-पाप है-दोनों ही बन्ध तत्त्व में अन्तर्भूत है; क्योंकि बन्ध का कारणभूत कषायिक परिणाम ही भावबन्ध है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मतत्त्व, अर्थात् जीवतत्व को सर्वप्रथम एवं महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आत्मा का स्वरूप (भाव): कुन्दकुन्दाचार्य ने “समयसार' के जीवाजीवाधिकार में आत्मा पर विशद प्रकाश डाला है। आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए वह कहते हैं : अहमिको खलु सुद्धो दंसणणाण मइओ सदारुवी। णविअस्थि मच्छ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तंपि।। अरसमरुवमगंधं अव्वन्तं चेदणागुणमसदं । जाण अंलिग्गहणं जीवमणिहिटु संठाणं ॥ अर्थात्, आत्मा एक, शुद्ध, दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगवाला, अरूपी है, उसका पर द्रव्यों से बिलकुल भी सम्बन्ध नहीं है । आत्मा सभी अन्य भावों से रहित, चेतना-शक्ति से सम्पन्न है। रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द, लिंग तथा संस्थान-आकार ये सभी पुद्गल के धर्म हैं। इसके विपरीत आत्मा रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द और लिंग से रहित और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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