Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 280
________________ जैन दर्शन में आत्मतत्त्व : एक विश्लेषण ने को जानने रूप पर्याय है । उपयोग स्वरूप आत्मा को कहकर को आचार्य कुन्दकुन्द यह बताया है कि ज्ञान से भिन्न जीव नहीं होता । आत्मा और ज्ञान, दोनों अलग-अलग नहीं है, जैसा कि जैन दर्शन का यह नियम है कि द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न नहीं है । यदि आत्मा को ज्ञान से सर्वथा भिन्न माना जाय तो ज्ञान, गुण से रहित होने के कारण अज्ञानी मानना पड़ेगा। इसका मतलब यह होगा कि दोनों अचेतन हो जायेंगे । इसलिए कहा गया है. : दंसणणाणाणि तहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि । .२४ ववदेसदो पुद्यत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो ॥ (४) आत्मा प्रभु है : आत्मा को जैन दर्शन में प्रभु कहा गया है। प्रभु का अर्थ है कि आत्मा निश्चय नय से आस्रव, सवर, बन्ध और निर्जरा करने में स्वयं समर्थ है । व्यवहारनय से आत्मा, अपने द्रव्यकर्मों का स्वामी है। यह विशेषता प्रकट करता है कि आत्मा अपने सुख-दुःख और शुभ-अशुभ कर्मों को प्राप्त करने के लिए स्वयं उत्तरदायी है । यह कथन ठीक नहीं है कि ईश्वर, आत्मा को सुख-दुःख देता है । 251 (५) आत्मा कर्त्ता है : पंचास्तिकाय में जीव को कर्ता बताया गया है । इस विशेषण के द्वारा उनलोगों के मत का निराकरण हो जाता है, जो आत्मा को कर्ता नहीं मानते हैं । यहाँ आत्मा को कर्ता कहने का तात्पर्य है कि आत्मा व्यवहारनय की अपेक्षा से ज्ञानावरणादि कर्मों और पुद्गल पदार्थों का कर्ता है। लेकिन अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा राग-द्वेष रूप अशुद्ध भावों का कर्ता है, और शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध चेतन भाव काकर्ता है। इस प्रकार, जैन दर्शन में आत्मा को नय की अपेक्षा से कर्ता कहा गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में इसका सूक्ष्म विवेचन लगभग २० (बीस) गाथाओं द्वारा किया है। एक प्रश्न के उत्तर में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि यद्यपि आत्मा और पुल दोनों अपने-अपने भावों का कर्ता है, तथापि दोनों एक दूसरे के निमित्त से परभाव के कर्ता माने जाते हैं । यहाँ उनके इस कथन को भी लिख देना आवश्यक है कि जब दोनों (जीव और पुद्गल) अपने-अपने भावों के कर्ता निश्चयनय से है, तब जीव कर्म को कैसे भोगता है ? इसका उत्तर यह है कि इस संसार में सूक्ष्म और स्थूल अनेक प्रकार के पुद्गल परमाणु, काजल की डिबिया में रखे हुए काजल की तरह अत्यधिक रूप से भरे हुए हैं । जब आत्मा, राग-द्वेषपूर्वक क्रिया करती है, तब वे पुद्गल परमाणु स्वयं आकृष्ट होकर कर्मरूप हो जाते हैं । इस प्रकार यह निश्चय हुआ कि आत्मा, व्यवहारनय की अपेक्षा से ही पुद्गल कर्मों का कर्ता है, निश्चयनय से तो वह अपने भावों का कर्ता है. । Jain Education International (६) आत्मा भोक्ता है : आत्मा का यह भी एक विशेषता है कि वह भोक्ता है । इस विशेषण के द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द ने उन लोगों के मत का निराकरण किया है, जो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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