Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन -दृष्टि
प्रतिपादन करता है और इस प्रकार वह एक ओर सांख्य, बौद्ध और वैशेषिक दर्शन की गहन चिन्तन - रेखाओं से जुड़ा हुआ मालूम पड़ता है । परमाणुओं के सन्धान से भौतिक जगत् का सृजन यह चिन्तन आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा से भी बहुत कुछ मिलता जुलता है।
अनेकान्तवादः स्याद्वादः
'स्याद्वाद' जैन चिन्तन का मेरुदण्ड है । कोई भी वस्तु या व्यक्ति का स्वरूप या चरित्र-निर्धारण किसी एक को लेकर एकान्ततः नहीं होता, वह किसी अन्य की अपेक्षा से होता है । संसार की कोई भी वस्तु न तो नितान्त नित्य होती है और न नितान्त अनित्य ही । जिस तरह वेदान्त में 'ब्रह्म' की सत्यता और जगत् के मिथ्यात्व का प्रतिपादन वैचारिक जगत् में एक मौलिक देन है, वैसे ही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद जैन चिन्तन की अत्यन्त गहन निष्पत्ति और महान् उपलब्धि है। जैन दार्शनिकों के अनुसार छोटे-से दीपक से विराट् आकाश तक का विश्लेषण स्याद्वाद - चिन्तन के अनुसार हो सकता है । स्याद्वाद की सप्तभंगी विवेचन-शैली से संसार की विविध नाम-रूप- गुणधर्मी वस्तुओं का ज्ञान होता है | आज के सापेक्षवाद के सहारे आधुनिक वैज्ञानिक भौतिक जगत् का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं, परन्तु जैन दर्शन के स्याद्वाद के द्वारा तो पुद्गल (नश्वर जगत्) से आत्मा तक सबका समान रूप से तर्कसंगत विवेचन सम्भव है। आज का सापेक्षवाद केवल भौतिक जगत् का विश्लेषण करता है, वहाँ यह अध्यात्मजगत् का भी विवेचन करने की स्थिति में है । इसका क्षेत्र कहीं व्यापक है।
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प्रतीत्यसमुत्पाद: शून्यवाद :
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इस सन्दर्भ में हमारा ध्यान 'प्रतीत्यसमुत्पाद' से विकसित प्रसिद्ध बौद्ध चिन्तन 'शून्यवाद' की ओर जाता है। वह मेरी दृष्टि में जैन चिन्तन के मेरुदण्ड स्याद्वाद या अनेकान्तवाद के बहुत कुछ समानान्तर है । इस चिन्तन के प्रवर्तक द्वितीय शताब्दी के महान् बौद्ध विचारक नागार्जुन हैं। उन्होंने प्रतीत्यसमुत्पाद को ही 'शून्यवाद' कहा है। शून्यवाद के लिए दो और नामों का उन्होंने प्रयोग किया है : 'उपादाय - प्रज्ञप्ति' और 'मध्यमा प्रतिपद्' । इसके अनुसार कोई वस्तु अकेले नहीं हुआ करती । रथ एक प्रज्ञप्ति है, पर यह अकेला नहीं वह पहिया, उसके समूचे ढाँचे, बल्ली, रस्सी, जुआ आदि उपादानों को लेकर ही सम्पन्न हो पाता है । इसी प्रज्ञप्ति का विवेचन 'ललितविस्तर' में बीज और अंकुर के माध्यम से भी किया गया है। बीज होने पर अंकुर होता है, पर बीज ही अंकुर नहीं है और बीज से पृथक् अथवा उससे कुछ भिन्न कुछ और वस्तु भी अंकुर नहीं है । अतः बीज नित्य नहीं, पर वह अनित्य भी नहीं; क्योंकि अंकुर बीज का परिवर्तित रूप है। ३८ इस उदाहरण से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि प्रत्येक वस्तु के उत्पन्न होने
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