Book Title: Proceedings and papers of National Seminar on Jainology
Author(s): Yugalkishor Mishra
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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महावीर का पंचसूत्री महावत और बृहदारण्यक के तीन 'द' 237 उपकारी वर्णन किये गये हैं। लेकिन जब-जब मनुष्य स्वेच्छाचारी हुआ है, तब-तब अनेक दुःखदायी स्थितियाँ आई हैं और उस दुर्व्यवस्था को समाप्त कर नई व्यवस्था के लिए भगवान् या अवतारी व्यक्तियों के अवतार की आवश्यकता पड़ी है। इसी स्थिति से शतपथब्राह्मण के मनु या प्रजापति, बाइबिल और कुरान के 'नूह' को भी सामना करना पड़ा था, तब फिर मानव-संस्कारों का निर्माण हुआ था।
चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीरस्वामी के पहले तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी में प्रकट हो चुके थे। उन्होंने अपने समय में साधकों के लिए जो नियम बनाये थे, उनका बहुत आदर हुआ था। फिर भी साधकों की अधर्माचरण वृत्ति के कारण महावीरस्वामी को उसका संशोधन कर नियमों को कठोर बनाना पड़ा, जिसका उल्लेख 'उत्तराध्ययनसूत्र' में प्राप्त पार्श्वनाथ-शिष्य के और महावीर-शिष्य गौतम के संवाद में मिलता है। वर्धमान महावीर के पंचसूत्रों पर विचार करने पर उसकी महत्ता पर स्वभावतः हमारा ध्यान आकृष्ट हो जाता है। उनके पंचसूत्र हैं१. अहिंसा
२. अयाचना ३. सत्य-भाषण ४ आजन्म ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह ।
इन पाँचों सूत्रों में से कोई भी ऐसा सूत्र नहीं है, जिसका किसी देश या काल के किसी धर्मविशेष से किसी प्रकार का अन्तर हो जाय। हाँ, संसार चलाने के लिए 'ब्रह्मचर्य' का कुछ विशेष अर्थ करना पड़ता है। इसीलिए धर्मप्रचारकों को मुनि और आर्य, तथा उनके उपदेशों को माननेवालों को श्रावक और श्राविका कहा गया है। ये गृहस्थ होते हुए धर्मपालन में संलग्न हुआ करते हैं। सदाचारयुक्त ज्ञानी धर्मोपदेशक आवश्यक हैं, तो उनके उचित आचरण करनेवाले श्रोता गृहस्थ भी आवश्यक हैं।
चाहे पार्श्वनाथ की चतुःसूत्री आचारसंहिता हो, या उसी को आगे बढ़ाकर भगवान् महावीर की पंचसूत्री आचार-संहिता, ये सब व्यवहार को ही लेकर उपदिष्ट हैं। उस समय की परिस्थिति पर ध्यान देते हैं, तो हम पाते हैं कि उस समय मक्खलिगोशाल का आजीवक-सिद्धान्त (स्वातन्त्र्यवाद), पूरणकश्यप का अक्रियावाद, अजितकेशकम्बली का उच्छेदवाद, पकुधकाच्चायन का अशाश्वतवाद, संजयवेलट्ठिपुत्त का विक्षेपवाद-ये कुछ ऐसे वाद आ गये थे, जिनकी टक्कर तत्कालीन धर्मों से थी। जैनधर्म में उपर्युक्त सम्प्रदायों के कारण अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ आ गई थीं और जैनधर्मानुयायी व्यवहार-सम्बन्धी कठिनाइयों का अनुभव कर रहे थे। जैमिनि के समान वर्धमान महावीर भी एक प्रकार से क्रियावाद के ही समर्थक थे। लेकिन इस क्रियावाद से महत्त्वपूर्ण उनका अनेकान्तवाद था, जिसने उपर्युक्त पाँचों वादों या अन्य अनेक अप्रसिद्ध सिद्धान्तों
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